एक दिन ज़िन्दगी ऐसे मुकाम पर आ जाएगी...
दोस्ती तो सिर्फ़ यादों में ही रह जाएगी...
हर कप काफ़ी याद दोस्तों की दिलाएगी...
और हस्ते-हस्ते फ़िर आँखें नम हो जायेंगी...
ऑफिस के चैंबर में क्लास रूम नज़र आएगी...
पर चाहने पर भी प्रॉक्सी नही लग पाएगी...
पैसे तो शायद बहुत होंगे ,
पर उन्हें लुटाने की चाहत ही खो जाएगी...
जी लो इस पल को मेरे दोस्तों,
कि ज़िन्दगी फिर से नही ख़ुद को दोहराएगी...
ज़िन्दगी फिर से नही ख़ुद को दोहराएगी (Zindagi Phir se nahi Khud ko Dohraegi)
प्रस्तुतकर्ता बेनामी पर 5:10 amकिताबों के पन्नों को पलट के सोचता हूँ,
यूँ पलट जाए ज़िन्दगी तो क्या बात हो!
ख्वाबो में रोज़ मिलता है जो,
हकीकत में मिल जाए तो क्या बात हो!
कुछ मतलब के लिए ढूँढते है मुझको,
बिन मतलब जो आए तो क्या बात हो!
कत्ल करके तो सब ले जाएँगे दिल मेरा,
कोई बातों से ले जा तो क्या बात हो!
जो शरीफों कि शराफत में बात न हो,
एक शराबी कह जाए तो क्या बात हो!
अपने रहने तक तो खुशी दूंगा सबको,
जो किसी को मेरी मौत पे खुशी मिल जाए तो क्या बात हो!!!
Wo saal dusara tha, Ye saal dushara hai.(वो साल दूसरा था, ये साल दूसरा है!!)
प्रस्तुतकर्ता बेनामी पर 12:46 amजब तुम से इत्तफाकन,
मेरी नज़र मिली थी,
कुछ याद आ रहा है,
शायद वह जनवरी थी।
तुम यूँ मिली दुबारा,
जब माह फ़रवरी में,
जैसे के हम सफर हो,
तुम राहे ज़िन्दगी में।
कितना हसीं ज़माना,
आया था मार्च लेकर,
राहें वफ़ा पे थी तुम,
वादों की टॉर्च लेकर।
बाँधा जो अहदे उल्फत,
अप्रैल चल रहा था,
दुनिया बदल रही थी,
मौसम बदल रहा था।
लेकिन मई जब आई,
जलने लगा ज़माना,
हर शक्श की जुबाँ पे,
था बस यही फ़साना।
दुनिया के डर से तुमने,
जब बदली थी निगाहें,
था जून का महीना,
लुब पे थी गर्म आहें।
जुलाई में की तुमने,
जो बातचीत कुछ कम,
थे आसमां पे बादल,
और मेरी आँखें गुरनम।
माहे अगस्त में जब,
बरसात हो रही थी,
बस आंशुओं की बारिश,
दिन - रात हो रही थी।
कुछ याद आ रहा है,
वो माह का सितम्बर,
तुमने मुझे लिखा था,
करके वफ़ा का लैटर।
तुम गैर हो चुकी थी,
अक्टूबर आ गया था,
दुनिया बदल चुकी थी,
मौसम बदल चुका था।
फ़िर आ गया नवम्बर,
ऐसी भी रात आई,
मुझसे तुम्हे छुडाने,
सजकर बरात आई।
फ़िर कैद था दिसम्बर,
ज़ज्बात मर चुके थे,
मौसम था सर्द उसमें,
अरमान बिखर चुके थे।
लेकिन ये क्या बताऊ,
अब हाल दूसरा है,
वो साल दूसरा था,
ये साल दूसरा है!!
Submitted By: Robin
पत्थर पे भी गुलाब उगाने का शौक है (patthar pe bhii gulaab ugaane kaa shouk hai)
प्रस्तुतकर्ता बेनामी पर 8:22 pmअश्कों में जैसे धुल गये सब मुस्कराते रंग ,
रस्ते में थक के सो गयी मासूम सी उमंग,
दिल है कि फिर भी ख्वाब सजाने का शौक है,
पत्थर पे भी गुलाब उगाने का शौक है|
बरसों से तो यूँ एक अमावस कि रात है,
अब इसको हौसला कहूँ कि जिद की बात है,
दिल कहता है, कि अँधेरे में भी रौशनी तो है,
माना कि राख हो गये उम्मीद के अलाव,
कि राख में भी आग कहीं दबी तो है,
आप की याद कैसे आएगी?, आप ये समझते क्यूँ नहीं!!
याद तो सिर्फ उनकी आती है, हम कभी जिनको भूल जाते हैं!!
-- वीरानिया (महफ़िल मिक्स)