कुछ नज्में, शेर-ओ-शायरी (Nazm, Sher-o-Shayari)



किस-दर्ज़ा दिशिकां थे मुहब्बत के हादसे,
हम ज़िन्दगी में फ़िर कोई अरमां न कर सके...
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जाने किस चमन की शाख़ सूनी हो गई होगी,
फ़कत ये सोच कर हम फूल तोहफ़े में नही लेते...
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उम्र भर यही गलती करते रहे...
धूल थी चेहरे पे,
और हम आइना साफ करते रहे...
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महफ़िल का ये सन्नाटा तो तोड़े तो कोई नाज़िस,
सागर ही छलक जाए...
आंशु ही टपक जाए...
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आख़िर जाम में क्या बात थी ऐसी साकी,
हो गया पी के जो ख़ामोश वो ख़ामोश रहा....
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ना छेड़ ऐ हमनशीं कैफियते सहबा के अफसाने
मुझे वो दश्ते खुदफरामोशी के चक्कर याद आते हैं

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Submitted By: देवेश चौरसिया

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