हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह (Ham Tere shahar mein aayein hain mushafir ki tarah)

हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह -2,
सिर्फ़ इक बार मुलाक़ात का मौका दे दे।
हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह -२।

मेरी मंजिल है कहाँ मेरा ठिकाना है कहाँ -2,
सुबह तक तुझसे बिछड़ कर मुझे जाना है कहाँ,
सोचने के लिए इक रात का मौका दे दे ।

हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह -२।

अपनी आंखों में छुपा रक्खे हैं जुगनू मैंने,
अपनी पलकों पे सजा रक्खे हैं आंसू मैंने,
मेरी आंखों को भी बरसात का मौका दे दे।

हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह -२।

आज कि रात मेरा दर्द-ऐ-मोहब्बत सुन ले,
कप-कापते होठों की शिकायत सुन ले,
आज इज़हार-ऐ ख़यालात का मौका दे दे।

हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह -२।

भूलना ही था तो ये इकरार किया ही क्यूँ था,
बेवफा तुने मुझे प्यार किया ही क्यूँ था,
सिर्फ़ दो चार सवालात का मौका दे दे।

हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह -2,
सिर्फ़ इक बार मुलाक़ात का मौका दे दे।
हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह -२।


--ग़ज़ल (जगजीत सिंह)

कानून में सुधार आया है! (Kanoon me Sudhar aaya hai)

चाहे मानसून लेट आया है
पर एहसास नया ये लाया है,
कानून में सुधार आया है
देश में अब बदलाव आया है|

लड़के को लड़की न खोजनी
ना लड़की को लड़का,
कोई भी मिल जाये चलेगा
बस भिडे प्रेम का टांका |

शायद अब किसी घर में
मूंछों वाली भाभी आएँगी,
कन्यायें कन्या को भी अब
जीजू जीजू बुलाएंगी|

उन्मुक्त गगन के नीचे केवल
अब जोड़े ना रास रचाएंगे,
बदला बदला होगा मंजर
लड़के जब लड़का पटायेंगे|

पुलिस के पास भी अब शायद
छेड़छाड़ के केसेज बढ़ जायेंगे ,
महिला महिला को छेड़ेगी
पुरुष पुरुष से छेड़े जायेंगे |

हर सिक्के के पहलू दो होते
कुछ सुधार तो आयेंगे,
ये नए बदलाव देश को
जनसँख्या विस्फोट से बचायेंगे|

--निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

लकड़ जल के कोयला होय जाए (Lakad Jal ke Koyala ho jae)


लकड़ जल के कोयला होय जाए

लकड़ जल के कोयला होय जाए
कोयला होय जाए - खाक

जिया जले तो कुछ न होय रे
न धुंआ न राख


जिया न जलइयो रे हाय
जिया न लगईयो रे हाय
जिया न जलइयो रे हाय

बर्फ पिघल के पानी होय जाये रे
बर्फ पिघल के पानी होय जाये रे
बदल बन उड़ जाए

पीड जिया में ऐसी बैठी रे बैठी
ऐसी बैठी रे बैठी
न पिघले न जाए रे

नदी किनारे बहते सहारे
न ना लगईयो रे


हाय जिया न लगईयो रे
जिया न जलइयो रे हाय

लकड़ जल के कोयला होय जाए

हो झूठे वचन सारी बातें
झूठे वचन सब सारी बातें
रुत बरखा का पानी
बरस बरस सब बह जावे रे
सब बह जावे रे


जीने जितने मानी
सावन से ये न बुझने की


जाँ न जलइयो
जिया न जलइयो रे
जिया न लगईयो रे
जिया न जलइयो रे
जिया न जलइयो रे

--गुलज़ार

यह गीत हिन्दी सिनेमा "ओमकारा" का है।

तमाशा (Tamasha)

तमाशा
नमस्कार,
कोई सम्बोधन इसलिये नहीं दे रही हूँ क्योंकि आपके लिये मेरे पास कोई सम्बोधन है ही नहीं । जब अपने चारों तरफ नंजर दौड़ाती हूँ तो पाती हूँ कि वे सभी जो मेरे आस पास हैं उनके लिये मेरे पास एक उचित सम्बोधन भी है किन्तु आपके लिये ...? आपके लिये तो मेरे पास कुछ भी नहीं है, न भावनाएँ और ना ही सम्बोधन। वैसे अगर रिश्तों की परिभाषाओं के मान से देखा जाए तो आपके और मेरे बीच में भी एक सूत्र जुड़ा है मगर मैं उस सूत्र को नहीं मानती इसीलिये ये पत्र लिख रही हूं ।
यहाँ इस घर से जब मेरे विदा होने की घड़ी आ गई है तब स्मृतियों के अध्यायों को खोलते हुए सुधियों के पन्नों को टटोलते हुए ये पत्र आपको लिख रही हूँ। यकीन मानिये मैं ऐसा कभी भी करना नहीं चाहती थी, अगर चाहती तो पिछले वर्षों में कभी भी लिख देती। आज भी ये पत्र लिख रही हूं तो उसके पीछे भी एक बड़ा कारण है और ये कारण आपसे भी जुड़ा है और मुझसे भी। ये पत्र संभवत: आपके और मेरे बीच का पहला संवाद है और ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि यही अंतिम भी हो क्योंकि इसीलिये तो मैं ये पत्र लिख रही हूँ। पत्र शुरू करने से पहले बहुत सारी भूमिका इसलिये बाँध रही हूँ ताकि आपको ऐसा ना लगे कि ये एक लड़की द्वारा भावुकता में लिखा गया पत्र है। ये पत्र एक सुदृढ़ मन:स्थिति में लिख रही हूं। एक बात पुन: दोहरा रही हूँ कि लिख इसलिये रही हूं क्योंकि इसके अलावा कोई चारा था भी नहीं।

मैं भी नहीं जानती कि उस वक्त यदि मैं कुछ सोच पाती तो क्या सोचती जब मैं केवल कुछ ही दिनों की थी। शायद दस दिन पहले ही मेरा जन्म हुआ था। दादी बताती हैं कि आप शहर से आए थे और बरामदे में बैठे थे जब दादी ने दस दिन की मुझे आपकी गोद में लाकर लिटा दिया था और कुछ हँसते हुए कहा था ''ले मुन्ना देख ले अपनी बिटिया को''। आगे की घटना बताते हुए दादी कुछ गंभीर हो जाती हैं किन्तु बताती अवश्य हैं। संभवत: यही वह बात है जिसने मुझे इतना मजबूत बनाया है । मैं सोचती हूँ कि दादी ने भी शायद इसीलिये मुझे बार बार वो घटना सुनाई है क्योंकि वो भी मुझे ऐसा ही बनाना चाहती थीं। दस दिन की मैं आपकी गोद में लेटी ही थी कि आपने हिकारत से मुझे उठाकर नीचे गोबर से लिपे कच्चे फर्श पर पटक दिया था ये कहते हुए ''हटाओ ये तमाशा, एक तो अनपढ़, गंवार देहातन मेरे पल्ले बाँध दी ऊपर से इन सब चक्करों में भी उलझा रहे हो''।

दादी बताती हैं कि तब आप शायद केवल अपना सामान बटोरने ही वहाँ आए थे क्योंकि तब के गए आप फिर कभी भी नहीं लौटे। मैं कभी भी नहीं भूल पाई इस बात को कि आपने मुझे हिकारत से जमीन पर पटकते हुए एक घिनौना सा नाम दिया था 'तमाशा'। चूंकि मैं नहीं समझती कि आपके और मेरे बीच में मर्यादा की कोई ओट है इसीलिये पूछती हूँ आपसे कि ये तमाशा आया कहाँ से? उसी अनपढ़, गंवार देहातन के साथ आपके संबंधों का ही तो परिणाम थी मैं। उस स्त्री को भोगते समय तो आपको विचार नहीं आया कि ये तो अनपढ़, गंवार देहातन है। मेरी माँ ने भले ही उस तिरस्कार को सह लिया हो पर मेरे मन ने अपने आपको दिया गया आपके नाम तमाशा रूपी अपमान को कभी भी सहजता से नहीं लिया।
आप एक बड़ा लेखक बनना चाहते थे और बन भी गए हैं। आज आपका नाम है, मान है सम्मान है सब कुछ है और इन सबके बीच में मैं या मेरी वो कृषकाय माँ कहीं भी नहीं आते हैं क्योंकि वहाँ तो कोई और है, वो जिसे आपने सीढी क़ी तरह इस्तेमाल किया है। सीढ़ी इसलिये क्योंकि वो उस आलोचक की बेटी थी जिसकी कलम आपको एक गुमनाम लेखक के अंधेरों से निकाल कर सफलता की रोशनी में ला सकती थी। मेरी माँ चाहतीं तो उनके रहते दूसरा विवाह करने पर आपको कोर्ट में भी घसीट सकतीं थीं परंतु वो आपकी तरह नहीं थीं, हाँ अगर उनकी जगह मैं होती तो ऐसा जरूर करती।
मुझे याद है जब मैं छोटी थी तो बहुत बार मुझे उस एक पुरुष की कमी महसूस हुई जिसे मैं दूसरों के घर में पिता के रूप में देखती थी। वह पुरुष जब किसी नन्ही बच्ची को रुई से भरी हुई गदबदी सी गुड़िया लाकर देता तो रो देती थी मैं। जब किसी बच्ची को पिता की उंगली थामे जाते देखती तो पूछती थी माँ से, दादी से कि कहाँ है ये पुरुष जो बाकी के सब घरों में तो है पर मेरे ही घर में नहीं है। उन दोनों स्त्रियों की ऑंखों में नमी का सोता फूट पड़ता था मेरे इस प्रश्न से। हालंकि ये सब बातें तब की हैं जब मैं छोटी थी नासमझ थी। उस समय मुझे पता ही नहीं था कि जिस पुरुष को लेकर मैं इतना परेशान हो रही हूं वही पुरुष मुझे 'तमाशा'नाम देकर चला गया है।

जब ठीक से समझने लायक हुई थी तब पहली बार दादी ने मुझे बैठाकर सब कुछ बताया था और बिल्कुल साफ-साफ बताया था। मुझे याद है कि उस दिन मैं स्कूल नहीं गई थी दिन भर घर में बैठी रोती रही थी। लेकिन अगले दिन जब सुबह हुई तो मैं सब कुछ भूल चुकी थी उस विगत को जो मेरा था। मुझे केवल वह शब्द 'तमाशा' ही याद था। उस दिन के बाद मुझे फिर उस पुरुष की कमी कभी भी अपने जीवन में महसूस नहीं हुई जो दूसरों के घर में पिता बन कर नंजर आता था। उस दिन के बाद मेरा एक नया जन्म हुआ था एक मजबूत और दृढ़ निश्चयी लड़की का जन्म। दादी और माँ दोनो ही चाहती थीं कि मैं खूब पढ़ूं और मैंने किया भी वही। हिंदी में मास्टर डिग्री लेने के पीछे मेरी मंशा यही थी कि मैं उस तमाशा नाम देने वाले को बता सकूँ कि अब मैं भी वही हूँ जो तुम हो।
कॉलेज के दौरान कई बार ऐसा हुआ कि आपका नाम गाहे-बगाहे आता रहा। फिर जब आपने अपना आत्मकथ्यात्मक उपन्यास लिखा तब तो आपके और मेरे बीच के उस एक सच का पता सबको चल गया था। जब मैं हिंदी में एम ए कर रही थी तब उसी उपन्यास पर एक संगोष्ठी का आयोजन किसा गया था। मुझे भी उसमें अपने विचार रखने थे। मैंने अपनी बात की शुरूआत कुछ इस तरह से की थी 'ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भी इस उपन्यास में कहीं हूँ और ऐसा इसलिये क्योंकि इसका लेखक मेरी माँ का पति रहा है किंतु एक बात मैं यहाँ स्पष्ट कर दूं कि मेरी माँ का पति होने का मतलब ये कदापि नहीं है कि वो मेरा पिता भी है। पिता एक पदवी होती है जो मैं किसी कायर और भगोड़े को नहीं दे सकती' इतना कह कर जब मैं सांस लेने के लिये रुकी तब पूरा हाल तालियों से गूंज रहा था। सच कहती हूं उन तालियों से बड़ा पुरुस्कार मुझे अपने जीवन में दूसरा नहीं मिला। उन तालियों ने मुझे और भी मजबूत कर दिया था वह उस व्यक्ति को मेरा पहला जवाब था जिसने मुझे तमाशा नाम दिया था।

एमए के बाद पीएचडी की और उसके बाद मेरा नाम हो गया डॉ. स्वाति कुसुम देशपाण्डे। कुसुम को स्वयं मैंने अपने नाम के बीच में स्थान दिया है क्योंकि ये मेरी माँ का नाम है, मेरे नाम के बीच में किसी भगोड़े का नाम आ ही नहीं सकता था। ये मेरा दूसरा जवाब था। ये पत्र जिस खास प्रयोजन से लिख रही हूं अब उस पर ही आती हूँ। आपको ये तो पता हो ही गया होगा कि मेरी शादी हो रही है। पता इसलिये चल गया होगा क्योंकि मैं जानती हूँ कि माँ और दादी ने मुझसे छुपाकर आपको खबर की है। मैं ये भी जानती हूँ कि उन दोनों स्त्रियों ने नहीं चाहते हुए भी केवल सामाजिक मान और मर्यादाओं के चलते ही ऐसा किया है। मैंने भी सब कुछ जानते हुए भी उनसे कुछ भी नहीं कहा, मैं उन दोनों स्त्रियों को छोड़कर अब जब जा रही हूँ तब कुछ भी कह कर या करके उन दोनों का दिल दुखाना नहीं चाहती। परम्परा है कि कन्यादान के समय स्त्री का पति भी साथ होता है और दोनों मिलकर अपनी कन्या का दान करते हैं, शायद केवल और केवल इसी परम्परा के चलते ही उन दोनों स्त्रियों ने आपको सूचना दी है।

मैं ये पत्र इसलिये लिख रही हूं ताकि आपको ये बता सकूँ कि कोई भी व्यक्ति दान उसी चींज का कर सकता है जो उसकी हो और जब आपका मुझ पर कोई भी अधिकार है ही नहीं तब भला आप मुझे दान कैसे कर सकते हैं? जिस उम्र में मैं एक गुड़िया के लिये तरसती थी तब आप वह मुझे दे नहीं पाए और अब जब उन दोनों स्त्रियों ने मिलकर एक गुड्डा मेरे लिये तलाश किया है तब मैं नहीं चाहती कि आप दुनिया के सामने आकर ये साबित करने का प्रयास करें कि आप ने ही मेरे लिये ये गुड्डा लाकर दिया है। समाज पुरुष प्रधान है और निश्चित रूप से जब आप होंगे तो आपको ही सारा श्रेय मिलेगा और उन दोनों स्त्रियों की सारी तपस्या व्यर्थ हो जाएगी। मैं नहीं चाहती कि आप उस गुड्डे के हाथों में मेरा हाथ सौंपें, पिता का सम्बोधन मैं न कल आपको दे सकती थी न आज दे सकती हूं, मेरा जीवन इस सम्बोधन से विहीन है। रही बात आपकी तो आपके साथ तो ईश्वर ने न्याय किया है आप मुझे तमाशा कह कर जमीन पर फैंक कर चले गए थे शायद इसी कारण आप फिर नि:संतान ही रहे। नि:संतान इसलिये क्योंकि मैं अपने आप को आपकी संतान नहीं मानती और उस दूसरी स्त्री से आपको कुछ नहीं मिला ना बेटा ना बेटी। मैने अपने आपको पिता सम्बोधन से स्वयं विहीन किया है किन्तु आपको बच्चों के सम्बोधन से तो स्वयं ईश्वर ने विहीन कर दिया है। मैं जानती हूं कि इस सम्बोधन से विहीन होने के कारण ही आप जरूर आना चाहेंगे मेरी शादी में।
इसीलिये आपसे कह रही हूं कि आप मेरी शादी में मत आना। मैं अपनी ही शादी में कोई भी 'तमाशा' खड़ा करके उन दो महान स्त्रियों को कोई दु:ख नहीं पहुंचाना चाहती जिन्होंने मुझे यहाँ तक लाकर खड़ा किया है कि मैं आज कॉलेज में आप और आप जैसे कई लेखकों को अपने छात्रों को पढ़ाती हूँ। पुन: आपसे कह रही हूं कि ये मैं डॉ. स्वाती कुसुम देशपाण्डे चाहती हूं कि आप मेरी शादी में ना आएँ। मैं जानती हूं कि आप इतने बेशर्म नहीं हैं कि इतना कुछ लिखने के बाद भी चले आएँ। पत्र में लिखी हुई किसी भी बात के लिये क्षमा माँगने की औपचारिकता इसलिये नहीं करूंगी क्योंकि मैने कुछ भी गलत लिखा ही नहीं है, अगर आपको किसी भी बात के लिये बुरा लगा हो तो उसके लिये आप अपने आप से खुद क्षमा मांगें और शायद मुझसे भी। आशा है आप नहीं आएंगे।-

-डॉ. स्वाती कुसुम देशपाण्डे, प्राध्यापक हिंदी विभाग, शास. कॉलेज


-- पंकज सुबीर

दंगों पर एक किस्सा और सही (Dango Par Kissa Ek Aur Sahi) Hindi Kahani)

दंगों पर एक किस्सा और सही

आतंकवाद के जमाने में दंगों के किस्से कौन पढ़ता है, फिर भी समाज की यह एक पुरानी विधा है, यह मान, एक किस्सा और सही .... वह दंगों का शहर था और उस शहर में फिर दंगा हो गया। दो मजहबों के पूजा स्थल पास-पास ही थे। वर्ष में एक बार ऐसा मौका आता कि दोनों धर्मों के उत्सव एक ही दिन आते। तब सार्वजनिक चौक के बंटवारे का प्रश्न आ खड़ा होता। सभी जानते थे कि दंगा होगा इसलिये गुपचुप कई महिनों पहले तैयारियाँ होनी शुरु हो जाती। इस बार भी जम कर दंगा हुआ। पत्थर, जलते टायर, चाकू, देशी कट्टे, ऐसीड बम, जलती मशाले इत्यादि का भरपूर उपयोग हुआ। जितने हुनरमंद थे सब संतुष्ट हुए। कहां मिलता है रोज-रोज ऐसा मौका? अब तो प्रशासन भी नकारा हो गया है। जरा सा कुछ हुआ नहीं कि कर्फ्यू लगा दिया। पुलिस भी कानून की उँगली थामने लगी तो वकील और पुलिस में क्या अंतर रहेगा? डंडे की दहशत का नाम ही तो पुलिस है।
दंगा ही वह पर्व है जिसे सभी लोग बिना किसी भेदभाव के मनाते हैं। सभी मजहबों का एक ही मकसद होता है दंगा। पिछले दंगों के किस्से, बाप दादाओं की शौर्य गाथाएं, हर गली हर नुक्कड़ का मुख्य व्यंजन होता है। कर्फ्यू अवधि खत्म होने पर घर लौटते हर व्यक्ति के मुँह में, आने वाले दिन के दंगा लक्ष्यों के चटकारे होते हैं। सभी घर लौटने की जल्दी में होते हैं। घर पर खवातीन भी बेसब्री से दूध ब्रेड और अफवाहों का इंतजार कर रही होती हैं।

खाली हवा में बातें करने से किस्सा आगे नहीं बढ़ता। किस्से के प्रवाह के लिये पात्रों का होना निहायत ही ज़रूरी होता है। आइये इस शहर के दो बाशिन्दे को लेकर किस्सा आगे बढ़ाते है। गुलमोहर बी और ब्रह्मभट्ट। गुल और ब्रह्म।

पहली बार ब्रह्म ने गुल को शहर के चैराहे के पास धुंए से भरी एक गली में देखा था। एक लाश के पास बैठ विलाप करती हुई। तार-तार बुर्का, आंसू गालों पर जमे हुए। ब्रह्म ने एक उड़ती सी निगाह से उधर देखा और आगे बढ़ चला। वह भी अपने भाई की लाश फूंक कर घर जा रहा था ।

घुटे हुए सिर लिये लोगों को देखते ही अचानक गुल उठी और उनकी और दौड़ पड़ी ''अरे हत्यारों क्या बिगाड़ा था मेरे कलेजे के टुकड़े ने तुम्हारा .......... हमारा घर जलाया ....दूकानें जलाई ......मेरे सरताज को मार दिया ......और अब मेरे ...मेरे लाल को भी मार दिया..........। वह रोती जा रही थी और उन लागों को कोसती जा रही थी। साथ ही एक विशेष आवाज के साथ सांस भी ले रही थी। कुल-मिलाकर उसके गले से जो विभत्स आवाज निकल रही थी, वह शहर के वर्तमान हालात की प्रतिध्वनी थी। गुल का विलाप जारी था। ...''मुझे क्यूं छोड़ दिया मुझे भी मार डालो .....अरे इतने पाप किये है ..एक तो पुण्य करलो ..एक तो पुण्य करलो, मुझे भी मार डालो ....'' इन अंतिम शब्दों को दोहराती ठठ्ठा मार कर हँस पड़ी। इसी बीच दो पुलिस वाले आये, उसके जवान बेटे की लाश को गाड़ी में रखा और गुल को भी घसीट कर गाड़ी में लाद दिया ।

इस पूरे प्रकरण से ब्रह्म के मन में एक नफरत की लहर सी उठी। पुलिस वाले ना आते तो वह दौड़ कर उस औरत का टेंटूआ ही दबा देता। उसे घुटन सी महसूस हुई। वमन करने को मन हुआ उसने अपनी अंतस की घृणा को इकट्टा किया और फुटपाथ पर थूक दिया।

दूसरी बार गुल से उसका सामना तब हुआ जब वो अपने संकल्प को क्रियान्वीत करने जा रहा था । हाथ में पेट्रोल से भरा बल्ब, साथ में लटकती सूतली । .... यही वह सामान था जिसने इंसान की शिराओ में बारुद भर दिया था। हाथ में नफरत की दियासलाई लिये कही भी कभी भी फट पड़ने को तत्पर। स्वार्थ सिंचित धर्म वृक्ष, नफरत फल ही देता है।

यह फल सभी जाति समुदाय के संकुचित सोच सदस्यों को समान तृप्ती देता है । धर्मान्ध व्यक्तियों को तो यह अमृत तुल्य लगता है। .... हां तो दूसरी बार ब्रह्म ने गुल को तब देखा जव वह भाई की मौत का बदला लेने जा रहा था। चारों तरफ जलती दुकानें ... भागते लोग... जलते टायर... गोलियों की आवाजें। सब कुछ उसे बेहद रोमांचक लग रहा था। अब तक वह कई घर और दुकानें जला चुका था। उजाले दीपावली की याद दिला रहे थे। गोलियों की आवाज मानो छूटते पटाखे। जलते मांस और बारुद की गूंथी हुई गंध मानो हलवाई की दूकान से आती बयार। तभी गली के दूसरे छोर पर हाथ में पत्थर और होंठों पर ठहाका लिये गुल खड़ी दिखाई दी। शायद उसने भी बरबादी का जश्न मनाना सीख लिया था। गुल ने खींच कर ब्रह्म की तरफ पत्थर फेंका। उधर ब्रह्म ने भी सूतली में आग लगाई और बल्ब गुल की तरफ उछाल दिया। गली के मध्य दोनों टकराये और आग की दीवार खड़ी हो गई। कहीं दूर पुलिस की गाड़ी का सायरन सुनाई दिया। दोनों भाग लिये।

घर और दोस्तों में ब्रह्म बहुत ही सयाना व संकोची माना जाता था। साइकिल वर कॉलेज से सीधा घर आता, दिन भर पढ़ता रहता और शाम को छोटे भाई को साथ ले पड़ौस के दोस्तो के घर कैरम खेलता। पढ़ाई में भी वो सदैव अग्रिम पंक्ति मे ही गिना जाता था। दंगाइयों के हाथों मित्रवत भाई की हत्या के बाद तो उसकी दुनिया ही बदल गई थी। पिता तो थे ही नहीं और मां की आँखें पिता को नित्य तर्पण से धुंधला ही देख पाती। मां को यह आभास ही नहीं हुआ कि कब उसका अंतिम अवलम्ब अग्निपथ पर चल पड़ा। शहर में कई दिनों से कर्फ्यू था। वह दोस्तों के घर जाने का बहाना कर छत के रास्ते गली में उतर हैवान बन जाता।

एक सुबह खाना खाकर जैसे ही वही वह घर से जाने लगा। मां के कराहने की आवाज सुनाई दी। माथे पर हाथ धरा तो तप रहा था। थर्मामीटर लगा कर देखा। बुखार तेज था। एक तरफ नफरत के नशे का चस्का दूसरी तरफ मां की चिंता। कुछ पल की कशमकश के बाद आज उसने अपनी हैवानियत स्थगित रखी। नफरत पर प्रेम की विजय ने सिद्ध किया कि नफरत आंधी है, आती है और सब कुछ तबाह कर के चली जाती है। जबकि प्रेम तो वह सरस सलिल है जो सदैव बहती है, शाश्वत है, जीवनदायिनी है। कुछ देर मां के सिरहाने बैठ गीला गमछा माथे रख बुखार कम करने का प्रयत्न करता रहा। बुखार जब थोड़ा कम हुआ तो मां को डाक्टर के पास ले जाने का तय किया। बाहर के हालात ठीक नहीण होने पर भी वह मां को पड़ौस के डाक्टर के पास ले चला। अंदर डाक्टर जांच कर रहा था और बाहर आगजनी हो रही थी। धार्मिक उन्माद के नारे लग रहे थे। आज उसका ध्यान पूर्णतया मां की चिन्ता में ही लगा था। डाक्टर ने दवाई लिखी। मां को घर छोड़ा। उसे मालूम था कि सरकारी अस्पताल में मेडिकल स्टोर खुला होगा। अपने खुफिया रास्तों से वह अस्पताल की ओर बढ़ चला। स्टोर से दवा खरीदी और लौट गया। वह जल्दी में था। मां की चिंता सता रही थी। शीघ्र मां के पास पहुँच जाना चाहता था कि वही मस्त कर देने वाले वहशी नारे उसके कानों में पड़े। कदम एक क्षण को ठिठके, अंदर की नफरत ने अंगड़ाई ली। एक पल के लिये रुका। गहरी सांस खीच कर स्वयं पर नियंत्रण किया। हाथ में पकड़ी दवा को कस कर पकड़ा और दृढ़ कदमों से घर की और चला। जैसे ही वह अपने मोहल्ले मे दाखिल हुआ चीखने-चिल्लाने की आवाजें और बचाओ-बचाओ की पुकार सुनाई दी। वह झपट कर अपने घर की तरफ दौड़ पड़ा। उसने देखा घर आग से लपटों से घिरा पड़ा था। खिड़की में देखा तो दो हाथ पुकार को उठे हुए थे। ......माँ ....हाँ वह हाथ माँ ही के थे। वह माँ.. माँ.. चिल्लाता हुआ घर की और लपका कि एक गोली दनदनाती हुई आई और उसके कंधे में आग उतरती चली गई। सड़क पर ब्रह्म पछाड़ खाकर गिरा और ढेर हो गया।

इस घटना की मौन साक्षी गुल, वही एक कोने में सहमी सी दुबकी खड़ी थी ।

कई दिन बीत गये लोगों में और दंगे करने और सहने की क्षमता नहीण रही तो जिन्होंने पहले कहा था '' जाओ मेरे बच्चो, धर्म की रक्षा करो ... मजहब के लिये मर मिटो ... ईश्वर की रक्षा आज मानव के हाथ है'' । उन्होंने फरमान जारी किया .. ''रुक जाओ मेरे बच्चो, ... दंगाइयों का कोई मजहब नहीं होता..... तुम्हें भड़काने वाले तो शैतान की औलाद और इंसानियत के दुश्मन है ...'' और इस तरह शहर में शांति बहाल कर दी गई।

पिछले कई दिनों से ब्रह्म फटेहाल खुद से अंजान सड़कों पर घूम रहा था। उसकी स्मृति लुप्त हो चुकी थी। कहीं कोने में पड़ी जूठन खा लेता रात किसी दुकान के शटर से लिपटा पड़ा रहता। अब वह सभी रंजो-गम से निर्लिप्त था। भूत का साया नहीं, भविष्य को खौफ नहीं। खालिस आज में ही नहीं वरन् वर्तमान में जीता हुआ। धरती उसका घर थी और आसपास के सभी मौहल्लों के कचरापात्र उसके अपने सगे।

चैराहे पर थोड़ी भीड़ थी। वह भी कुछ खाना पाने की आस में वहां चला गया। दंगा पीड़ितों का पुनर्वास केम्प लगा था। एक बाबू बैठा समोसा खा रहा था। वह समोसे को बड़े अपनेपन से देखने लगा। बाबू ने देखा, चपरासी को ईशारा किया। चपरासी ने पत्थर उठाने का अभिनय कर, उसे वहा से भगा दिया। ब्रह्म निर्विकार पास की होटल के पिछवाड़े, जूठन तलाशने चला गया।

दूसरी तरफ गुल, आज तक सहमी हुई। एक बेटे के सामने मां का जलना, बेटे का लपकना, कंधे में गोली लगना, पछाड़ खा कर गिरना बेहोशी की हालत में माँ-माँ चिल्लाना, इस पूरे घटना क्रम ने गुल को झकझोर कर रख दिया था। वह भी बदहवास लावारिस गलियों में भटका करती। इस दुनिया में अब उसका भी कोई नहीं था। अपनी सुरक्षा के लिये हाथ में हमेशा एक पत्थर रखती। मारने का अभिनय करती पर मारती किसी को नहीं। पत्थर लेकर लपकती परन्तु पास आकर पुचकार कर, माथे हाथ फेर कर चली जाती। दिन भर जनअरण्य में देह जठर और मन ममता की क्षुधातृप्ति को भटकती रहती। ब्रह्म जिस होटल के पिछवाड़े खाना तलाश रहा था वह भी वहाँ पहुँच गई। दोनों एक दूसरे को देखते रहे। फिर गुल के होंठ फड़फड़ाए ....बाहें पसारी और रो पड़ी ....बेटा .... । ब्रह्म स्तब्ध, विचारशून्य....। महीनों बाद किसी रिश्ते से सम्बोधित हुआ था। पलके बंद किये नतजानू वही बैठ गया। अपने लुट चुके स्मृतिकोश से लड़ता रहा। धीरे-धीरे धुँध छटने लगी। सड़क किनारे तार-तार बुर्के में अपने बेटे की लाश का सर गोद में रख रोती एक छाया, पलक पटल पर उभर आई। फिर जलती खिड़की में उभरे दो हाथ नजर आये। उसे लगा गोद में लेटे बेटे का चेहरा उसका अपना है और गुल के दोनों हाथ जल रहे हैं। उसने बेटे की लाश में कुछ हलचल महसूस की । अचानक वह दौड़ पड़ा और ... माँ .... कहता हुआ गुल से लिपट गया । दोनों की आंखों में अश्रुधारा बह निकली । रक्त के सैलाब से उजड़ चुकी धरा पर अश्रुसिंचन से एक नये मजहब की कौंपल फूट पड़ी। चेतना का कबूतर आशातृण लिये रिश्तों के खंडहर पर उतर गया ।

कोण और किस्सों का विस्तार अनंत होता है उन्हें सीमित करने के लिये कहीं ना कही चाप कांटना ही पड़ता है। इस किस्से को भी यहा चाप काट कर पूरा किया जाता है। पर आइये एक नजर चाप से परे भी डाल देते हैं।

अब दोनों अक्सर शहर के किसी कौने में खाना तलाश करते मिल जाते। दोनों के पास जो भी खाने का होता मिल-बांट लेते। धीरे-धीरे दोनों को पता चला कि वह अकेले नहीं है। उन जैसे बहुत हैं। अलग-अलग मजहब से आये हैं। पर वे आपस में कभी नहीं लड़ते। ना इनमें धर्मान्धता है, ना मजहबी उन्माद। सबका, सब कुछ दंगों में जल गया या लूट लिया गया है । हर एक का कोई अपना या तो दंगाइयों के हाथों मारा गया है या पुलिस की गोली से हलाक हुआ है। ये सभी किसी संत की मानिंद है जिनकी चेतना मां अन्नपूर्णा को समर्पित है। भूख इनका मजहब है, कचरा पात्र मंदिर और जूठन आराध्य। यहां गुलमोहरबी मां है और ब्रह्मभट्ट बेटा। हर दंगे के बाद इस समुदाय के सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है। अब इस दंगों के को अमन के शहर होने में अधिक देर नहीं है।

--विनय के जोशी

स्वेटर (Sweter) Hindi Kahani

स्वेटर



बाहर अभी उजाला है। हल्का-हल्का उजाला जो अभी थोड़ी देर में अंधेरे की शक्ल लेना शुरू कर देगा। माँ रसोई में अब भी कुछ खटपट कर रही है जबकि उसे अच्छी तरह पता है कि दोनों सूटकेस और बैग पैक हो चुके हैं और अब कोई चीज़ रखने की जगह नहीं।
वह कुर्सी पर आराम की मुद्रा में बैठा है। सामने अभिजीत पलंग पर बैठा है। पापा दरवाज़े पर टहल रहे हैं और पता नहीं किस चीज़ का इंतज़ार कर रहे हैं। वह कभी बाहर की तरफ देखता है, कभी अभिजीत की तरफ और कभी किचेन की तरफ। सभी मानो किसी चीज़ का इंतज़ार कर रहे हों। घड़ी की सुइयों का एक जगह से दूसरी जगह जाकर एक निश्चित जगह पहुँच जाना भी कितनी उदास घटना है, और कितना थका देने वाला है यह इंतज़ार। पापा बाहर टहलते-टहलते ही उसे बीच-बीच में देख ले रहे हैं जैसे उन्हें यक़ीन ही न हो कि वह इसी घर में उसी हत्थे टूटी कुर्सी पर बैठा है। थोड़ी-थोड़ी देर पर अंदर आ जा रहे हैं।
''विक्रांत का पता और फोन नम्बर कहाँ रखा है?''
''डायरी में।'' वह जैकेट की जेब थपथपाता है।
''कहीं दूसरी जगह भी लिख लो, अगर ये डायरी खो गयी तो.........?'' थोड़ी देर खड़े रहते हैं फिर बाहर जा कर टहलने लगते हैं। मां एक डब्बे में कुछ लेकर आती है।
''इसे बैग की साइड वाली पॉकेट में जगह बना कर रख लो।''
''क्या है ये..........?'' वह डब्बे को बिना थामे पूछता है।
''रास्ते में खाने के लिए मठरियाँ....।''
''मां, मैंने बताया था न कि प्लेन में खाना मिलता है।'' वह झुंझला जाता है।
''............पर ये खाना थोड़े ही है, थोड़ी-थोड़ी देर पर निकाल कर खाते रहना।'' मां थोड़ी सहम जाती है।
''मां तुम भी.........।''
अभिजीत उठकर मां के हाथ से डब्बा ले लेता है।
''लाओ आंटी, मैं रख देता हूँ। दो-चार अपनी जेब में और बाकी बैग में......।''
'' हाँ बेटा, ले रख दे।''
पापा फिर अंदर आते हैं।
''बेटा, वहाँ जाकर अपना हिसाब-किताब देख कर मुझे फोन करना। और भी पैसों की ज़रूरत होगी तो बताना। पढ़ाई में ध्यान लगाना, पैसों की कोई फ़िकर मत करना......।''
उसे पता है पापा की आदत है ये, जिस चीज़ की सबसे ज्यादा कमी होती है उसे ही सबसे ज्यादा उपलब्ध दिखाने की कोशिश करते हैं।
अभिजीत चुपचाप बैठा मठरियाँ खा रहा है। बीच-बीच में उसे देख ले रहा है और मुस्करा दे रहा है। ये इतना चुप तो कभी नहीं रहता। मठरियाँ खाने में ऐसे जुटा है जैसे मठरियां खाना दुनिया का सबसे ज़रूरी काम हो और उसका पढ़ाई करने ऑस्ट्रेलिया जाना एक मामूली बात हो।
अभी तीन घंटे बाद वह फ्लाइट में होगा। सभी से दूर..........माँ-पापा से, दोस्तों से, इस मुहल्ले से, इस शहर से, इस देश से...........।
थोड़ी देर में अनुज भी आ जाता है।
''सब तैयार है न ?'' वह अभिजीत से पूछता है।
''हाँ, हाँ सब तैयार है। बस........निकलते हैं।'' अभिजीत इत्मीनान से एक मठरी निकाल कर अनुज की ओर बढ़ा देता है।
रोज़ का दिन होता तो अनुज इतनी शांति से एक मठरी लेकर खाने लगता ? अभिजीत के हाथ से दूसरी भी छीन लेता और अभिजीत उसे छीनने के लिए उसकी टांगों में हाथ डालकर गिरा देता और मठरियां छीनने लगता। माँ हमेशा की तरह दोनों की तरफ देख कर कहती, ''अरे लड़ो मत बेटा। अभी और भी मठरियाँ बची हुयी हैं।''
मगर अनुज एक मठरी आराम से खा रहा है। माँ सोफे पर बैठकर एकटक उसकी ओर देख रही है। वह मुस्करा देता है।
''क्या है माँ ? ऐसे क्यों देख रही हो ?''
''अं हां, अपने खाने-पीने का बहुत ख़याल रखना। रात को दूध ज़रूर पीना और.....और फोन करते रहना। पढ़ाई पर ध्यान देना और चिट्ठी ज़रूर डालते रहना।''
''अरे आंटी, अब कौन चिट्ठी-विट्ठी लिखता है। यह हर दो-तीन दिन पर ई मेल करता रहेगा और हम आकर इसका हाल-चाल आपको बता दिया करेंगे।'' अनुज कहता है।
''जुग-जुग जीओ बेटा।''
वह अनुज की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखता है। अनुज भी कुछ बताने के लिए उसकी तरफ देख रहा है पर माँ की उपस्थिति से दोनों ख़ामोश हैं। वह अभिजीत की ओर देखता है। अभिजीत उसकी आंखें का इशारा समझा जाता है। वह उठकर मां के पास चला जाता है।
''आंटी वह नमकीन वाली गुझिया दो न एक।''
'' जा बेटा, उस सफ़ेद डब्बे में है, निकाल ले।'' माँ वहाँ से बिल्कुल नही उठना चाहती।
'' नहीं आंटी प्लीज़ आप निकाल लाओ न।''
''अच्छा रुको लाती हूँ।'' माँ धीरे से उठ कर रसोई की तरफ चली जाती है।
अनुज लपक कर उसके पास पहुँचता है।
''क्या हुआ ?'' वह बेचैन दिख रहा है।
''वह सीधा एअरपोर्ट आयेगी।'' अनुज बताता है।
''यार यहाँ आ जाती तो मैं नीचे जाकर मिल आता। एअरपोर्ट पर तो पापा भी होंगे। क्या बोलकर परिचय कराऊँगा उसका.......?''
''बोल देना दोस्त है।'' अनुज राय देता है।
''हाँ पर.....फेयरवेल किस नहीं ले पाएगा पापा के सामने।'' अभिजीत मुस्कराता हुआ कहता है।
''अरे यार वो बात नही...........अभी तक माँ-पापा को कुछ नहीं बनाया तो अब जाते वक्त.......। बाद में बताऊँगा, सीधे फ़ाइनल डिसीजन के समय..............।'' वह कुछ सोच में पड़ जाता है।
''सुन तू पापा को एअरपोर्ट चलने के लिए मना कर दे। कुछ भी बोल कर समझा ले। बोल दे कि दो लोग तो जा ही रहे हैं।'' अभिजीत आइडिया देता है।
''हाँ शायद यही ठीक रहेगा।'' वह सोचते हुए बुदबुदाता है।
माँ गुझिया रख कर पापा के पास चली गयी है। दोनों आपस में बातें कर रहे हैं। या अब अकेले सिर्फ़ एक दूसरे के साथ रहने का अभ्यास..........?''
पापा फिर अंदर आते हैं।
'' ठंड से बचकर रहना। वहाँ ठंड ज्यादा पड़ती है। हमेशा मफ़लर लगा कर रहना। ठंड कानों पर ही सबसे पहले आक्रमण करती है। कान हमेशा ढके होने चाहिए। ये नही कि फ़ैशन में बाल न बिगड़ें, इसलिए मफ़लर ही न लगाओ। स्वविवेक से काम लेना। वहां कोई देखने नहीं आयेगा। वह तुम्हारा घर नहीं मेलबर्न है।''
पापा पिछले कुछ दिनों से हर बात में घुमा-फिरा कर मेलबर्न का ज़िक्र ज़रूर ले आते हैं जैसे पूरी तस्दीक कर लेना चाहते हों कि वह वाकई इतनी दूर जा रहा है।
पापा बाहर जा कर फिर टहलने लगते हैं। माँ बाहर कुर्सी पर बैठी है।
''जी.............।'' इतनी बातों के जवाब में वह सिर्फ़ एक शब्द बोलता है जो बाहर पसर रहे अंधेरे में गुम हो जाता है।
''आज रोज़ इतनी ठंड नहीं है।'' अनुज कहता है।
''हां बल्कि मुझे तो गर्मी लग रही है।'' वह कहता है।
''वह तो लगेगी ही, तूने स्वेटर और जैकेट दोनों पहन रखी है। मुझे देख...।'' अभिजीत उसे अपना हाफ़ स्वेटर दिखाता है।
''अरे यार, पापा ने ज़बरदस्ती.........।''
''तो पापा के सपूत, अब तो उतार दे। पापा बाहर हैं। उतार कर जैकेट की चेन बंद कर ले। उन्हें क्या पता चलेगा।'' अभिजीत राय देता है।
वह जैकेट उतार कर स्वेटर उतार देता है। फिर जैकेट पहन कर उसकी चेन बंद कर देता है।
''मैं सोच रहा था, ये स्वेटर न ले जाऊँ।'' वह स्वेटर को तह करते हुये कहता है।
'' सही सोच रहा है। इस पुराने स्वेटर को ले जाकर क्या करेगा ? तीन-तीन अच्छे स्वेटर तो हैं तेरे पास........।'' अनुज समझाता है।
''मगर पापा देख लेंगे तो उन्हें बुरा लगेगा। वह ख़ुद यह स्वेटर मेरे लिये नेपाल से लाये थे।'' वह हिचकिचाता है।
''अभी नहीं देखेंगे ना ? बाद में देखेंगे तो सोचेंगे गलती से छूट गया।'' अनुज स्वेटर तह करके तकिये के नीचे रख देता है।
फिर तीनों अचानक चुप हो जाते हैं। अनुज व अभिजीत दोनों उसकी तरफ देख कर मुस्कराते हैं।
''कुछ कह रही थी ?'' वह भी मुस्कराता है।
''नहीं, कुछ ख़ास नहीं। बस यही कि पहुँचते ही अपना पोस्टल एड्रेस उसे मेल कर देना। जो स्वेटर तुम्हारे लिये बुन रही है, बस पूरा होने ही वाला है, उसे कूरियर करेगी। कह रही थी बहुत सारी बातें हैं जो तुमसे एअरपोर्ट पर करेगी। मैंने कहा मुझे बता दे, मैं तुम्हें बता दूंगा तो नाराज़ होने लगी.........।'' अनुज कुटिल मुस्कान मुस्कराता है।
''साले, तुझसे क्यों बतायेगी ? वो बातें तू सीमा से क्यों नही करता ?'' वह भी मुस्कराता है।
''यार, वह ना तो मुझे घास डालती है न मेरी डाली घास खाती है। उससे क्या बातें करूँ, मुझ तो तेरी कविता ही पसंद है।'' अनुज ढीठता से हँसता हुआ कहता है।
वह फिर मुस्कराता है। वह जानता है ओर कोई दिन रहता तो सीमा का नाम सुनते ही अनुज दिल पर हाथ रखकर सारी बातें धीरे-धीरे नाटकीय अंदाज़ में कराहते हुये कहता। वह भी उसकी ज़बान से कविता का नाम सुनते ही उस पर लातें चलाने लगता। पर आज की बात दूसरी है। आज उनके पास वक्त नहीं है। आधे घंटे के भीतर वे एअरपोर्ट के लिये निकल लेंगे। उससे पहले यारों के बीच होने वाली बेवकूफ़ियों को रिवाइंड करना अच्छा लग रहा है।
पापा मां के साथ फिर अंदर आते हैं।
''अब निकलते हैं बेटा, कहीं पहुँचने में देर न हो जाय।''
''अरे अंकल, अभी तो टाइम है।'' अनुज कहता है।
''अरे भई ट्रैफ़िक जैम का कोई भरोसा है क्या। कभी भी लेट करा सकता है।''
मां भीगी आंखों से उसे देखती है। ''तेरे जाने के बाद घर एकदम सूना हो जायेगा।'' लगता है माँ रो देगी।
''कम ऑन आंटी, हम सूना होने देंगे तब ना..........।'' अभिजीत माँ के कंधे पर हाथ रखता है। माँ उसका गाल थपथपा देती है।
''चलो बेटा चलो, अब निकलते हैं.................कहीं देर न हो जाय।'' पापा पास आकर खड़े हो जाते हैं। उसे पापा पर इसी बात से गुस्सा आता है। जिस बात को एक बार मुँह से निकाल देते हैं उसके पीछे ही पड़ जाते हैं।
''चलो बेटा, आओ अनुज.............।'' उसके सोचने भर में पापा एक बार और अपनी बात दोहरा देते हैं और एक बैग उठाने का उपक्रम करते हैं।
''अरे अंकल, आप कहाँ परेशान होंगे ? हम हैं ना..........। आप आराम कीजिये।'' अनुज यह कहता हुआ बैग उठा लेता है। अभिजीत दोनों सूटकेस उठा लेता है।
''अरे नहीं बेटा, मैं भी चलता हूं।'' पापा परेशान दिखने लगे हैं।
''छोड़िये अंकल, डॉक्टर ने वैसे भी आपको ज्यादा दौड़ने-धूपने से मना किया है। आप यहीं रहिये । हम हैं ना.........।'' कहता हुआ अभिजीत बाहर निकल जाता है। पीछे-पीछे अनुज भी।
''डॉक्टर ने दौड़ने को मना किया है भई। मुझे दौड़ते हुये थोड़े ही चलना है।........चलता हूँ मैं भी...........।'' पापा उसके कंधे पर हाथ रखते हुये एक उदास हँसी हवसते हैं जो इस उदास शाम को और उदास कर जाती है।
''रहने दीजिये पापा, आप बेकार परेशान होंगे।'' वह पापा के पैर छूता है, फिर माँ के।
'' बेटा, माता के पैर छू लो।'' माँ दुर्गा के शीशे में मढ़ायी गयी तस्वीर की ओर इशारा करती है।
वह आगे बढ़ कर दुर्गा की तस्वीर को प्रणाम करता है जिसके शीशे में पापा की उदास खड़ी परछाई दिखायी देती है। वह बाहर आ जाता है। पापा उम्मीद भरी आंखों से उसे देखते रहते हैं। माँ उसे दही खिलाती है। वह जल्दी से दही खाकर निकल जाता है।
तीनों घर से निकल कर सड़क पर आ जाते हैं। वह ख़ुद को ऐसे मक़ाम पर पा रहा है जहां एक वाज़िब ख़ुशी का एहसास दिल में इसलिये नहीं उमड़ पा रहा है क्योकि कुछ छूट जाने का गम उस पर हावी होता जा रहा है। अपने दोस्त, अपनी जगह, अपना माहौल.........। एक नयी दुनिया में जाने की ख़ुशी पता नहीं क्यों इतनी शिद्दत से महसूस नहीं हो पा रही है।
क़रीब सौ मीटर चलने के बाद अनुज सिगरेट जलाकर दोनों को एक-एक थमा देता है। दोनों सिगरेट फूँकते हुये ऑटो स्टैंड की तरफ जाने लगते हैं।
'' आज सुबह मनु के घर पुलिस की रेड़ पड़ी थी।'' अनुज सिगरेट का धुँआ छोड़ता हुआ बताता है।
'' हां, उसके डैडी बिजनेस की आड़ में कुछ गलत धंधा करते थे।'' अभिजीत कहता है।
उसका मन सुबह से भारी हो रहा है। वह अपनी बीती ज़िंदगी और आने वाली ज़िंदगी के बारे में सोच रहा है। इन दोनों की बातें सुनकर उसका मन डूबता हुआ सा लग रहा है। वे भी तो उसके बिना अकेले हो जाएंगे। वह कितना मिस करेगा इनको..........।
''अच्छा सुन, वहां की लड़कियां बड़ी फ़्रैंक होती है। दो-चार पट जायं तो बताना, हम भी आय ई एल टी एस ट्राय कर लेंगे। क्यों अभि ?'' अनुज खी-खी करके हंसने लगता है।
वह भी मुस्करा देता है। अभिजीत एक बार उसकी तरफ़ देख भर लेता है। वे कितनी सफ़ाई से दिल दुखाने वाली बातें नहीं करना चाहते।
''मैं वहां तुम लोगों को बहुत मिस करूँगा.........।'' वह भरी-भरी आवाज़ में कहता है। अभिजीत उसकी हथेली अपनी हथेली में पकड़ कर दबा देता है।
''अरे कभी-कभी उसे भी मिस कर लेना जो अपना प्यार स्वेटर की शक्ल में भेजने वाली है........................।'' अनुज अपनी आदत के अनुसार भावुक होने के बावजूद बात को हंसी में उड़ा देता है।
'' अंकल आ रहे हैं। पीछे पलटने से पहले सिगरेट फेंक दो।'' अभिजीत धीरे से फुसफुसाता है।
वह सिगरेट फेंक कर पलटता है। पापा लगभग दौड़ते हुये आ रहे हैं। वह आगे बढ़कर सड़क पार करता है और उनके पास पहुंचता है।
'' क्या बात है पापा ? आपके लिये दौड़ना नुकसानदायक है, आप जानते हैं फिर भी.......?'' वह हल्का गुस्सा दिखाता है। उसे पहली बार याद आता है कि उसके जाने के बाद पापा का उतावलापन नियंत्रित करने वाला कोई नहीं रहेगा और वह उतावली में अपना नुकसान करते रहेंगे।
'' अरे तुम ये स्वेटर भूल आये थे तकिये के नीचे.............। तुम्हारी मम्मी ने कहा कि.तुम्हें दे आऊँ......इसलिये थोड़ा दौड़ना पड़ा।...........लो बैग में रख लो.........।'' पापा अटकती सांसों के बीच बोलते हैं और उसे देखते रहते हैं।
उसे अचानक पापा के ऊपर तरस आने लगता है, फिर अपने ऊपर। फिर पापा के ऊपर प्यार आने लगता है और अपने ऊपर गुस्सा। स्थिर, गंभीर आंखों और लंबी सांसों के बीच पापा ने कितनी चिंतायें छिपा रखी हैं। उसका मन करता है कि अपने दिल में पापा के लिये छिपा सारा प्यार ज़ाहिर कर दे। क्या पता फिर पापा भी जाते समय उससे पैर छुआने की जगह उसे गले लगा लें।
वह डूबती आंखों और कांपते हाथों से स्वेटर हाथ में लिये थोड़ी देर खड़ा रहता है और पापा को देखता रहता है।
'' सारी ज़रूरी चीज़ें रख ली हैं न ? ये याद रखना कि हमेशा अपनी मेहनत पर विश्वास रखना। सही रास्ता कठिन हो या लंबा, हमेशा उसे ही चुनना। शरीर और पढ़ाई दोनों पर ध्यान देना। पैसों की चिन्ता मत करना। चलो, अब जाओ, देखो अनुज ने ऑटो तय कर लिया है।..............बुला रहा है तुम्हें।'' पापा सामान्य दिखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
'' जी...........।'' वह भरी आंखों के साथ पलटता है। दो-तीन क़दम चलने पर पापा की आवाज़ सुनायी देती है।
'' कहो तो मैं भी चल ही चलूँ.........। वैसे भी घर पर बैठा ही रहूँगा..........।'' पापा की धीमी आवाज़ जैसे कहूँ और न कहूँ के संशय के बीच से निकल कर आ रही है। ज़माने भर का दर्द और निवेदन समेटे अपनी आवाज़ को उन्होंने इस तरह ज़ाहिर करना चाहा है जैसे उन्होंने बहुत सामान्य और छोटी सी बात कही है और इसके न माने जाने पर भी उन्हें कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ेगा।

चश्मे (Chasme) Awarded Story

चश्मे


जब उसकी टैक्सी बाहर आकर रुकी तो सवेरा हो जाने के बावजूद अभी शक्ल दूर से न पहचाने जाने लायक अंधेरा था। उसने अपने घर के गेट के सामने टैक्सी रुकवाई और सामान उतार कर उसका बिल अदा किया।
टैक्सी जाने के कुछ देर बाद तक वह अपना सामान लिये वहीं खड़ा रहा। उसके घर वाली पंक्ति में तीन नये मकान और बन गये थे। दो मकानों के बनने की ख़बर तो उसने सुनी थी पर यह तीसरा प्लॉट कब बिका और मकान भी तैयार हो गया ? उसने कॉलबेल बजायी।
मां गेट खोलने के बाद आश्चर्य से उसे घूरने लगी। क्या मां उसे पहचानने की कोशिश कर रही है ? पहचान का ऐसा संकट? वह डर गया। क्या डेढ़ सालों में वह इतना बदल गया है? बाल कुछ ज्यादा सफ़ेद हो गये हैं पर वह तो असमय ही॰॰॰॰॰॰। शायद मोटा ज्यादा हो गया है। पर फिर डर जाता रहा।
´´ आ॰॰॰॰॰ अंदर आ।´´
´´प्रणाम मां।´´ उसने पैर छुए।
घुसते ही पहली नज़र बिस्तर पर पड़ी। पिताजी मौजूद नहीं थे।
´´पिताजी क्या इतनी ठंड में भी॰॰॰॰?´´
´´और क्या, नियम धरम के पक्के हैं॰॰॰॰॰॰॰।´´ मां मुस्करायी।
मां रज़ाई में पैर डाल कर बैठ गयी। वह भी कुर्सी खींचकर वहीं बैठ गया। मां उसकी ओर देखकर मुस्करा रही थी। वह मां को ध्यान से देखने लगा। पिछली बार एक बार भी फ़ुरसत से मां के पास नहीं बैठ पाया था। मां कितनी बदलती जा रही है। हर बार वह दूसरी मां को पाता है। चेहरे पर झुर्रियां बढ़ती जा रही हैं।
´´मां, तुम तो बूढ़ी होती जा रही हो।´´ उसने मुस्करा कर कहा।
´´जब मेरा जाया बूढ़ा होने लगा तो मैं तो बूढ़ी होऊंगी ही।´´ मां उसके निकलते जा रहे पेट की ओर देखकर मुस्करायी।
वह शरमा गया और नज़रें हटाकर कमरे की ओर देखने लगा। अलमारियों में नये शीशे लगे थे। ऊपर वाले खाने से गुलदस्ते हटा दिये गये थे और वहां भगवान की कुछ तस्वीरें और मूर्तियां रखी हुयी थीं। नीचे वाले खाने पर कुछ किताबें और बीच वाले खाने पर दो मढ़ी हुयी तस्वीरें रखी हुयी थीं। एक तस्वीर मां और पिताजी की थी। जवानी के दिनों की जब पिताजी थोड़ी मोटी मूंछें रखते थे जों ऊपर की ओर तनी रहती थीं। दूसरी फोटो परिवार की थी जिसमें मां और पिताजी आगे कुर्सियों पर बैठे थे और वह और छोटे पीछे कुर्सियों की पीठ पर हाथ रखे खड़े थे।
´´ये भगवान की तस्वीरें और मूर्तियां यहां ड्राइंगरूम में क्यों रखी हैं ?´´ उसने आलमारी की ओर देखते हुये पूछा।
´´ तेरे पिताजी रोज़ पूजा करते हैं सुबह।´´ मां बताती हुयी हँसने लगी।
´´क्या॰॰॰॰॰॰॰॰॰? पिताजी और पूजा ?´´ उसे सुनकर एक अजीब सा गाढ़ा आश्चर्य हुआ जिसमें वह देर तक डूबा रहा। पिताजी तो शुरू से ही महानास्तिक किस्म के आदमी रहे हैं जो मां के पूजा-पाठ और व्रतों के विरोध में अक्सर लम्बे-लम्बे लेक्चर पिलाया करते थे। और अब ख़ुद पूजा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰?
´´और सुन, मांस-मछली भी खाना छोड़ दिया है। कहते हैं तुम नहीं खाती हो तो मुझे भी नहीं खाना चाहिये। मांस वाले सारे बर्तनों को स्टोर में रख दिया है।´´ मां उसी रौ में बता रही थी।
उसकी समझ में पिताजी का कायांतरण बिल्कुल नहीं आया। उन्हें क्या हो गया है ? उसके सामने पिताजी का रोबदार चेहरा घूम गया। उसे अपने बचपन के, पुराने दिन याद आने लगे, जब पिताजी घर में तानाशाह की हैसियत रखते थे। इतने कड़क कि सामने जाने में डर लगे और इतने अनुशासन वाले कि घर के पेड़-पौधे भी हिलने से पहले उनकी इजाज़त लें। पुरूष होने का दंभ उन्हें विरासत में मिला था। दादाजी गांव के खांटी ज़मींदार थे और उन्होंने पूरी ज़िंदगी में दादी से एक बार भी प्रेम से बात नहीं की। पिताजी उनसे भी दो क़दम आगे थे। वे मां की हर बात, चाहे वह सही हो या गलत, इतनी तेज़ी से डपट कर काटते कि मां सहम जाती।
कारण शायद रहे होंगे अवचेतन में बैठ गयीं कुछ बातें और कुछ संस्कार। दादाजी और उनकी मंडली आपस में बैठ कर बातें करती तो तेज़ आवाज़ में कुछ शिक्षाएं निकलतीं जो अप्रत्यक्ष रूप से पिताजी के लिए होती थीं। जनानियां पांव की जूती होती हैं, उन्हें ज्यादा सिर पर नहीं चढ़ाना चाहिए। मरदों को औरतों की कोई बात नहीं माननी चाहिए। लुगाइयों को खाना पकाने और बच्चा जनने से ज्यादा कुछ नहीं सोचना चाहिए। इत्यादि इत्यादि।
मां ने सारी बातें दादी से सुनकर और फिर अपने अनुभवों से सबक प्राप्त कर अपने लिए एक सीमा खींच ली थी। मां बताती थी कि पिताजी शादी के बाद कई-कई दिनों तक मां से बोलते ही नहीं थे। मां शाकाहारी थी और वे उन्हीं बरतनों में मछलियां और अण्डे वग़ैरह खाते। कभी बाज़ार से ख़रीद कर लाते और कभी लाकर मां को बनाने का हुक्म देते। मां नाक बंद करके रोती हुयी बनाती। उस समय उसे मांसाहार बनाना भी नहीं आता था हालांकि बाद में वह बहुत अच्छा बनाने लगी थी, बल्कि उसके थोड़ा बड़ा होने के बाद तो मां ख़ुद कभी-कभी बाज़ार से अण्डे लाकर बनाकर उसको और पिताजी को प्रेमपूर्वक खिलाती।
चूंकि पिताजी पढ़े-लिखे थे और शादी के डेढ़-दो साल बाद ही शहर में नौकरी के लिये आ गये थे, इसीलिये किसी की सीखों ने ज्यादा दिनों तक काम नहीं किया। कुछ समय बाद वह मां से ठीक से बर्ताव करने लगे थे। ठीक से बर्ताव का मतलब क़तई यह नहीं था कि वह मां के कामों हाथ बंटाने लगे थे या मां के कहने पर फ़ैसले लेने लगे थे। हां, मां को बात-बेबात डपटना छोड़ दिया था और उसकी बातें एक बार सुन ज़रूर लेते थे, भले ही आखिरी फ़ैसला खुद ही लेते थे। मां बताती थी कि सुनने में भले ही ये परिवर्तन छोटे लगें पर उन जैसे इंसान के लिए बहुत क्रांतिकारी थे।
´´चाय पियेगा ?´´ मां ने बिस्तर से उतरते हुये पूछा।
´´ अं॰॰॰हां॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰बनाओ।´´ उसकी तंद्रा टूटी।´´ मां किचन में चली गयी और वह टहलने लगा।
´´परसों रात टीवी पर तेरा कार्यक्रम देखा था। बहुत अच्छा लगा।´´ मां किचन में से बोली।
´´अच्छा॰॰॰॰॰॰॰॰॰। पिताजी ने भी देखा ?´´ उसने आवाज़ थोड़ी ऊँची करके पूछा।
´´ हां, हां, उन्होंने भी देखा।´´
उसका जी चाहा कि वह पूछे कि पिताजी को कार्यक्रम कैसा लगा मगर चुप रहा। मां को ख़ुद बताना चाहिये। वह जानती तो है इस रिश्ते के बारे में। पिताजी कभी उसकी तारीफ़ नहीं करेंगे और वह कभी यह दिखाने की कोशिश नहीं करेगा कि पिताजी उसके बारे में जो भी सोचते हैं, उसे जानने की उसके अंदर कोई इच्छा या उत्कंठा है।
मां चाय लेकर बिस्तर पर आ गयी। वह बहुत प्रफुल्लित दिख रही थी। हाल के घटनाक्रमों को जैसे उस पर कोई असर ही न हुआ हो। क्या मां छोटे की वजह से बिल्कुल भी दुखी नहीं है ? जब उसने बिरादरी के बाहर शादी की थी तो सुना था कि मां ने हफ़्तों अन्न-जल त्याग रखा था। छोटे ने तो दूसरी धर्म वाली से शादी कर ली है। फिर मां इतनी खुश कैसे दिख सकती है, वह भी सिर्फ़ सात-आठ महीनों में ही॰॰॰॰॰॰?
´´बहू कैसी है ? और रिंकी॰॰॰॰॰॰॰॰?´´ मां ने चाय पीते हुये पूछा।
यही विषय है जिस पर मां या पिताजी के बात करते ही वह ख़ुद को अपराधी समझने लगता है। पिताजी ने तो खैर इस मुद्दे पर एक-दो बार के बाद बात ही नहीं की पर मां॰॰॰॰॰॰? उसने भी जैसे अपने आप को संभाल लिया है।
´´ठीक हैं दोनों।´´ उसने खिड़की की ओर देखते हुये जवाब दिया।
´´रिंकी तो अब बड़ी हो गयी होगी ?´´ मां ने वात्सल्य से मुस्कराते हुए पूछा।
´´हां, अब स्कूल भी जाने लगी है।´´
´´अच्छा॰॰॰॰॰॰॰॰। मुझे उसे देखने का मन करता है पर॰॰॰॰॰॰॰॰॰।´´ मां कुछ-कुछ कहती-कहती रुक गयी।
´´सच॰॰॰॰॰॰? तो चलो न मेरे साथ। जब मन करे फिर यहां छोड़ दूंगा।´´ वह चहक उठा।
´´अरे॰॰॰॰॰॰पिताजी अकेले हो जायेंगे यहां।´´ मां ने ठंडी सांस ली।
´´ मां, कुछ दिन के लिये चलो न॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰। पिताजी से कहो वह भी चल चलें।´´ उसने मां के घुटने पर हाथ रख बात का भावनात्मक वज़न बढ़ाते हुये कहा पर तुरंत अहसास हुआ कि उसने एक असंभव बात कह दी है और फिर उसने एक संभव विकल्प रखा।
´´तुम चलो मां। पिताजी अकेले रह सकते हैं कुछ दिन। मैं उनसे बात करूंगा।´´
´´अरे नहीं, वह मुझे भी नहीं॰॰॰॰॰॰।´´
´´क्यों, तुम्हें क्यों नही जाने देंगे ? क्या मेरा इतना भी हक नहीं बचा॰॰॰॰॰?´´
मां परेशान होकर कुछ सोचने लगी। फिर अचानक मुस्कराती हुयी बोली, ´´ अरे उनका कुछ पता नहीं। मुझे नहीं जाने देंगे। पता है क्या कहते हैं? पहले कहते थे जब हमारे बच्चों को हमारी परवाह नहीं तो हम उनकी क्यों करें और अब॰॰॰॰॰॰॰॰।´´
´´अब क्या कहते हैं ?´´ वह जानने को उत्सुक हो उठा क्योंकि ये पहले वाली बातें तो वह जानता था पर अब पिताजी क्या सोचने लगे हैं ?
´´अब॰॰॰॰॰? अब बच्चों पर कोई गुस्सा नहीं। कहते हैं बच्चों को अपनी ज़िंदगी जीने दो सुमन। हमने अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया बस। हमें अब उनसे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिये । हम कोई व्यापारी हैं जो हर बात का बदला खोजें ? अरे वो कुछ करते हैं हमारे लिये तो ठीक, हमें याद करते हैं, हमारे पास आते हैं तो ठीक वरना हम एक दूसरे का अकेलापन बांट सकते हैं। हमें ज्यादा मोहमाया नहीं बढ़ानी चाहिये। और तो और मुझे गीता के पता नहीं क्या-क्या श्लोक सुनाकर उनके अर्थ बताया करते हैं।´´ मां मुस्कराती हुयी बताती जा रही थी। वह मां को खुश देखकर खुश था।
´´अच्छा, ऐसी बातें करने लगे हैं वे॰॰॰॰॰?´´ उसे विश्वास नहीं हो रहा था। अपनी ज़िद को हमेशा सही समझने वाले और ज़िंदगी में कभी हार न मानने वाले इंसान के बारे में सुनकर भी उसका दिल इन बातों के सच होने पर विश्वास नहीं कर पा रहा था।
´´ अरे बहुत बदल गये हैं॰॰॰॰॰॰।´´ मां को ज़ाहिर है खुशी हुयी थी। खुश वह भी था, हालांकि इसके पीछे की ठोस वजह नहीं समझ पा रहा था।
´´ ऐसा परिवर्तन कब से आया है उनके भीतर॰॰॰॰॰॰॰? क्या छोटे के शादी कर लेने के बाद से॰॰॰॰॰?´´ उसके मन में जो संदेह था, वह उसने सामने रख दिया।
मां थोड़ी देर के लिये ख़ामोश हो गयी। फिर अचानक ही जैसे उसे कुछ याद आया हो।
´´ हां पर एकदम से उसी के बाद नहीं॰॰॰॰॰॰॰॰। परिवर्तन तो तेरी शादी के बाद से ही आने शुरू हो गये थे।
´´ कैसा है छोटे॰॰॰॰॰?´´ उसने पूछा।
´´ अच्छा है। हर दो-तीन दिन पर फोन करके हाल-चाल पूछता रहता है। महीने-डेढ़ महीने में घर भी आ जाता है। इस बार तो अपनी पत्नी को भी लेकर आया था। वह भी अच्छी है। बहुत जल्दी सारे हिंदू संस्कार सीख लिये हैं उसने। तेरे पिताजी से ख़ूब बातें करती है। तेरे पिताजी भी उसकी बड़ी तारीफ़ कर रहे थे।´´
उसे घोर झटका लगा। पिताजी बातें करते हैं अपनी बहू से, वह भी वह बहू जो दूसरे धर्म की है, जिसके लिये बेटे ने घर का विरोध करके शादी की। उनका नज़रिया इतना विस्तृत हो गया है। उसे पिताजी से मिलने की उत्कंठा बढ़ती जा रही थी।
´´ तूने तो जैसे सारे संबंध ही खत्म कर लिये हैं। आता है साल-साल भर पर और चला जाता है दो दिन में। बहू और बच्ची को भी नहीं लाता। कितनी बार कहा तुझसे कि बहू और बच्ची को गर्मियों की छुटि्टयों में यहां पहुंचा दे, दस दिनों के लिये ही सही। लेकिन नहीं तेरी तो अपने पिताजी से ही ठनी रहती है।´´ मां ने जैसे शिकायतों का पुलिंदा ही खोल लिया था।
´´ पिताजी ने ही कहा था कि इस औरत को अपने घर में घुसने नहीं देंगे। अब जब तक वह ख़ुद नहीं कहेंगे, तब तक मैं उसे नहीं लाउंगा।´´ उसने मां की आंखों से आंखें मिलाये बिना कहा। यह बात उसने बहुत पहले तय कर ली थी। आखिर उसका भी तो कोई स्वाभिमान है।
´´ और तूने मान लिया ? अरे उन्होंने गुस्से में कह दिया था। याद नहीं तेरे और छोटे पर कितना गर्व किया करते थे। देखा नहीं था, जब तुम्हारे चाचाओं से झगड़ा हुआ था तो उन्होंने सबके सामने क्या कहा था। मुझे किसी भी मतलबी रिश्तेदार की ज़रूरत नहीं, मेरे दो बेटे दो करोड़ के हैं। और तुम लोगों ने आज तक उनकी कोई बात नहीं मानी। कभी उनके मन लायक कोई काम नहीं किया। गुस्सा आना तो स्वाभाविक है।´´
सच ही कहती है मां। पिताजी वाकई उसे और छोटे को ग़ज़ब मानते थे। वह शुरू से ही बहुत यारबाश किस्म के आदमी थे और सभी यारों के बीच अपना स्थान बहुत ऊँचा रखना चाहते थे। किसी दोस्त की लगातार तीन लड़कियां होने पर उन्होंने उसके दु:ख को बांटने के लिये अपने दोनों बेटों की शादी उनकी दो लड़कियों से बचपन में ही तय कर दी थी। एक दोस्त जो पुलिस में काफी ऊँचे ओहदे पर था, से काफी पहले से उसकी नौकरी के लिये बात कर रखी थी। मकान बनवाते समय छोटे के लिये आगे की जगह दुकान, शोरूम या ऑफ़िस खोलने के लिये सुरक्षित कर रखी थी। एक बेटे का पुलिस की वर्दी में देखने का उनका पुराना सपना था। एक बेटा हमेशा घर में रहना चाहिये, ऐसी उनकी अटल मान्यता थी। लेकिन उनके बेटे उनकी छोटी-छोटी उम्मीदें भी कहां पूरी कर पाये। उसने पढ़ाई पूरी करते ही एक दोस्त के साथ मुंबई का रुख़ कर लिया और अब स्ट्रगल करते-करते अब अच्छा नाम बना लिया था। वहीं अपनी सहकर्मी के साथ शादी कर ली। छोटे दिल्ली निकल गये और शादियों के कांट्रैक्ट लेने लगे। काफी पैसा बनाने के बाद उससे भी दो क़दम आगे निकले और एक ग़ैर हिंदू से शादी कर ली। पिताजी की प्रतिक्रिया तो ठीक ही थी। उनके लड़कों ने लायक होने के बावजूद उनकी बात नहीं मानी। ग़ुस्सा तो आयेगा ही। लेकिन उसके और पिताजी के मानसिक संघर्ष में मां बेकार ही पिस रही है। अबकी वह ज़रूर मीता और रिंकी को ले आयेगा। अगर पिताजी एक बार खुद लाने को कह दें तो ज़रूर॰॰॰॰॰॰।
पिताजी के टहलने जाने का नियम बहुत पुराना था। वह जब काफी छोटा था, तब पिताजी उसे भी टहलने ले जाते थे, पर जैसे-जैसे बड़ा होता गया, पिताजी की लगायी सारी आदतें छूटती गयीं।
थोड़ी देर में कॉलबेल बजी। दरवाज़ा खोलने वही गया।
´´ अरे तुम॰॰॰॰॰॰॰॰?´´
´´प्रणाम पिताजी।´´ उसने पैर छुए।
´´ खुश रहो, जीते रहो।´´
उसे लगा जैसे पिताजी के चेहरे पर वही भाव आएंगे जो उसे पहले देख कर आते थे पर उनका चेहरा एकदम शान्त था। वह अंदर जाकर सोफ़े पर बैठते हुये बोले, ´´ आओ बेटा, अंदर आ जाओ।´´
उसे शब्दों पर विश्वास नहीं हुआ। पिताजी ने न जाने कितने अरसे बाद उसे बेटा कहा था। वह जाकर उनके सामने बैठ गया। यह एक साधारण घटना क़तई नहीं थी।
´´ कब आये ?´´
´´ जी, एक डेढ़ घंटे पहले॰॰॰॰॰॰॰॰॰।´´ वह बात करते हुये खुद को असहज पा रहा था।
´´ पेट कैसा रह रहा है आजकल ?´´
घोर आश्चर्य। उसे लगा जैसे वह सपना देख रहा हो। पिताजी उसकी सेहत के बारे में पूछ रहे थे। पेट का रोगी वह बचपन से था। वह बहुत संभलने के बाद बोल पाया, ´´ जी॰॰॰॰॰ आजकल ठीक है।´´
´´ चलो बढ़िया है। और सब॰॰॰॰?´´
´´जी सब अच्छा है।´´
´´ बहू और रिंकी बिटिया ?´´
´´ जी॰॰॰॰ दोनों ठीक हैं।´´ उसने आंखें फाड़ कर इस सच पर विश्वास करने की कोशिश करते हुये कहा।
पिताजी थोड़ी देर के लिये चुप हो गये। मां नाश्ता बना कर लायी थी। नाश्ता बीच में रख कर पिताजी की बगल में बैठ गयी। पिताजी चाय उठाते हुये बोले।
´´तुम कैसे होते जा रहे हो दिन-प्रतिदिन ? जैसे पैंतालिस साल के अधेड़ हो। बाल इतने सफेद होते जा रहे हैं और तोंद॰॰॰॰? ऐसा लगता है जैसे हलवाई हो। देख रही हो सुमन ? मेरी लगायी टहलने की आदत को इसने अपनाया होता तो आज पैंतीस की उमर में पचपन का न लगता। ॰॰॰थोड़ा सेहत का खयाल रखा करो बेटा।´´
वह मुस्कराने लगा। पिता भी मुस्करा रहे थे। मां दोनों को इस तरह बातें करते देख खुश थी। थोड़ी देर में वह उठ कर फिर किचेन में चली गयी।
´´ अभी रहोगे न कुछ दिन ?´´ पिताजी ने मुलायमियत से पूछा।
´´ जी, सिर्फ़ एक दिन का काम है दूरदर्शन में। ॰॰॰॰॰॰॰कल शाम को चला जाउंगा।
पिताजी थोड़ी देर तक उसे देखते रहे, फिर आवाज़ ऊँची करके मां से बोले।
´´ सुमन, मुझे सब्ज़ियां दे दो। मैं मंजन करने के बाद सब्ज़ियां काट दूंगा ओर तुम आटा गूंथ लेना।´´
वह मंजन करने आंगन में चले गये थे। उसे पिताजी से मिलकर, उनका यह रूप देखकर आश्चर्यमिश्रित खुशी हुयी थी पर पता नहीं क्यों, एक और अजब सी भावना भी मन में घुमड़ रही थी। उदासी, निराशा, क्रोध, आत्मग्लानि या इनमें से कई भावनाओं से मिश्रित कोई नयी भावना ही जिसे न पहचान सकने के कारण वह कोई भी संज्ञा दे सकने में असमर्थ था। यह भावना उसकी खुशी को रोक रही थी। इसमें इतना खुश होने वाली भी बात नहीं। सच तो यही है कि पिताजी का जो रूप वह शुरू से देखता आया था, उसमें एक सौ अस्सी अंश का परिवर्तन उसे बहुत ज्यादा अच्छा नहीं लग रहा था। वह शुरू से ही एक तानाशाह की तरह रहे हैं। उनका इस कर हंस कर उसके बराबरी में बैठकर बात करना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। वह मां के कामों में भी हाथ बंटाने लगे हैं। उनका नज़रिया निश्चित ही बदला है पर क्यों? वह सचमुच मां की सहायता करना चाहते हैं या उन्हें डर है कि मां भी उन्हें उनके बेटों की तरह अकेला न छोड़ दे?
पिताजी मंजन करके आ गये। सोफ़े पर बैठ कर उन्होंने अख़बार उठाया ओर कुर्ते की जेब से चश्मा निकाल कर लगा लिया और इत्मीनान से अख़बार के पन्ने पलटने लगे।
वह सनाके में था। उसका सिर जैसे चकराने लगा था। पिताजी उसका चश्मा लगाये हुये थे। वही चश्मा, जिस तरह के चश्मों से उन्हें सख्त चिढ़ थी। जब एक बार वह अपने पॉवर के शीशे उसे नये फ़्रेम में लगवा कर लाया था तो पिताजी बहुत गुस्सा हुये थे।
´´ ये फ़िल्मी फ़ैशन वाले चश्मे पहनोगे तुम ? इतने छोटे-छोटे शीशे जिनमें से आंखें बाहर झांकती रहती हैं ? उठा कर बाहर फेंको इसे। जाकर बड़े शीशे वाला चश्मा ले आओ जो क़ायदे का लगे, चश्मे जैसा। जैसा विद्यार्थी लगाते हैं॰॰॰॰॰॰।´´ पिताजी दहाड़ कर बोले थे। और उसने वाकई डर कर उस चश्मे को छिपा दिया था और दूसरा चश्मा ले आया था।
बाद में वह उस तरह के चश्मे पिताजी के सामने नहीं लगाता था। यह चश्मा वह ग़लती से छोड़ गया था जब पिछली बार आया था।
´´ पिताजी, यह चश्मा॰॰॰॰॰ ?´´ वह कुछ न समझ पाने की स्थिति में था, बहुत परेशान और बहुत कंफूयज्ड।
´´ अरे यह तुम्हारा ही है।´´ पिताजी ने चश्मा निकाल कर एक बार देखा और फिर लगा लिया।
´´ आपका वाला॰॰॰॰॰?´´
´´ वह? वहां आलमारी पर रखा है। मुझे लगता है इससे ज्यादा साफ़ दिखता है।´´
´´ अच्छा॰॰॰॰।´´ वह फिर चकित था।
´´तुम फ्रेश-व्रेश होना हो तो हो लो। फिर साथ में खायेंगे।´´ पिताजी फिर अख़बार पढ़ने में मशगूल हो गये।
वह बेचैन हो उठा और उठकर टहलने लगा। पिताजी से इस तरह के मित्रवत् व्यवहार की न उसने कभी उम्मीद की थी और न उसे अच्छा लग रहा था। एक चट्टान का इस तरह से दरकना, एक पर्वत का झुक जाना उसे बहुत अखर रहा था। जो कभी किसी के सामने नहीं झुका, भगवान के सामने भी नहीं, आज वह इतना नरम पड़ गया है। पूरे परिवार का, पूरे अनुशासन ओर कठोरता से नेतृत्व करने वाला सुल्तान आज खुद को ही हार गया है। इस समझौते के लिये उन्हें किसने विवश किया, उनकी संतानों ने ही तो। इतना असुरक्षित स्वयं को उन्होंने अपने बेटों की ही वजह से तो महसूस किया है। वह लगातार अपराधबोध में धंसता जा रहा था।
टहलता हुआ वह आलमारी के पास गया और पिताजी का पुराना चश्मा उठाकर देखने लगा। वह चश्मा लगाने पर उसे लगा जैसे उसे पहले से ज्यादा साफ़ दिखायी देने लगा है। उसके खुद के चश्मे से ज्यादा साफ़। थोड़ी देर तक चश्मे को लगाये घूमता रहा फिर आकर पिताजी के सामने बैठ गया।
´´ इस बार मीता और रिंकी को भी ले आऊँगा पिताजी।´´ चश्मा उसको एकदम फ़िट आया था।
´´ हां बेटा, इस बार छुटि्टयां भी कुछ ज्यादा दिन की निकाल कर आना।´´ पिताजी ने अख़बार पढ़ते हुये ही कहा।
मां ने शर्बत बनाया था और पीने के लिये दोनों को अंदर बुला रही थी।

--विमल चंद्र पाण्डेय

पापा की सज़ा ( Papa Ki Saja) Hindi Kahani

पापा की सज़ा


पापा ने ऐसा क्यों किया होगा?

उनके मन में उस समय किस तरह के तूफ़ान उठ रहे होंगे? जिस औरत के साथ उन्होंने सैतीस वर्ष लम्बा विवाहित जीवन बिताया; जिसे अपने से भी अधिक प्यार किया होगा; भला उसकी जान अपने ही हाथों से कैसे ली होगी? किन्तु सच यही था - मेरे पापा ने मेरी मां की हत्या, उसका गला दबा कर, अपने ही हाथों से की थी।

सच तो यह है कि पापा को लेकर ममी और मैं काफ़ी अर्से से परेशान चल रहे थे। उनके दिमाग़ में यह बात बैठ गई थी कि उनके पेट में कैंसर है और वे कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। डाक्टर के पास जाने से भी डरते थे। कहीं डाक्टर ने इस बात की पुष्टि कर दी, तो क्या होगा?


"रंगहीन तो ममी का जीवन हुआ जा रहा था। उसमें केवल एक ही रंग बाकी रह गया था। डर का रंग। डरी डरी मां जब मीट पकाती तो कच्चा रह जाता या फिर जल जाता।"
पापा को हस्पताल जाने से बहुत डर लगता है। उन्हें वहां के माहौल से ही दहश्त होने लगती है। उनकी मां हस्पताल गई, लौट कर नहीं आई। पिता गये तो उनका भी शव ही लौटा। भाई की अंतिम स्थिति ने तो पापा को तोड़ ही दिया था। शायद इसीलिये स्वयं हस्पताल नहीं जाना चाहते थे। किन्तु यह डर दिमाग में भीतर तक बैठ गया था कि उन्हें पेट में कैंसर हैं। पेट में दर्द भी तो बहुत तेज़ उठता था। पापा को एलोपैथी की दवाओं पर से भरोसा भी उठ गया था। उन पलों में बस ममी पेट पर कुछ मल देतीं, या फिर होम्योपैथी की दवा देतीं। दर्द रुकने में नहीं आता और पापा पेट पकड़ कर दोहरे होते रहते।

पापा की हरकतें दिन प्रतिदिन उग्र होती जा रही थीं। हर वक्त बस आत्महत्या के बारे में ही सोचते रहते। एक अजीब सा परिवर्तन देखा था पापा में। पापा ने गैराज में अपना वर्कशॉप जैसा बना रखा था। वहां के औज़ारों को तरतीब से रखने लगे, ठीक से पैक करके और उनमें से बहुत से औज़ार अब फैंकने भी लगे। दरअसल अब पापा ने अपनी बहुत सी काम की चीज़ें भी फेंकनी शुरू कर दी थीं। जैसे जीवन से लगाव कम होता जा रहा हो। पहले हर चीज़ को संभाल कर रखने वाले पापा अब चिड़चिड़े हो कर चिल्ला उठते, 'ये कचरा घर से निकालो !'

ममी दहशत से भर उठतीं। ममी को अब समझ ही नहीं आता था कि कचरा क्या है और काम की चीज़ क्या है। क्ई बार तो डर भी लगता कि उग्र रूप के चलते कहीं मां पर हाथ ना उठा दें, लेकिन मां इस बुढ़ापे के परिवर्तन को बस समझने का प्रयास करती रहती। मां का बाइबल में पूरा विश्वास था और आजकल तो यह विश्वास और भी अधिक गहराता जा रहा था। अपने पति को गलत मान भी कैसे सकती थी? कभी कभी अपने आप से बातें करने लगती। यीशु से पूछ भी बैठती कि आख़िर उसका कुसूर क्या है। उत्तर ना कभी मिला, ना ही वो आशा भी करती थी।

रंगहीन तो ममी का जीवन हुआ जा रहा था। उसमें केवल एक ही रंग बाकी रह गया था। डर का रंग। डरी डरी मां जब मीट पकाती तो कच्चा रह जाता या फिर जल जाता। कई बार तो स्टेक ओवन में रख कर ओवन चलाना ही भूल जाती। और पापा, वैसे तो उनको भूख ही कम लगती थी, लेकिन जब कभी खाने के लिये टेबल पर बैठते तो जो खाना परोसा जाता उससे उनका पारा थर्मामीटर तोड़ कर बाहर को आने लगता। ममी को स्यवं समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या होता जा रहा है।

"मेरी कार घर के सामने रुकी। वहां पुलिस की गाड़ियां पहले से ही मौजूद थीं। पुलिस ने घर के सामने एक बैरिकेड सा खड़ा कर दिया था। आसपास के कुछ लोग दिखाई दे रहे थे - अधिकतर बूढ़े लोग जो उस समय घर पर थे। सब की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे। कार पार्क कर के मैं घर के भीतर घुसी। पुलिस अपनी तहकीकात कर रही थी।"
मुझे और मां को हर वक्त यह डर सताता रहता था कि पापा कहीं आत्महत्या न कर लें। ममी तो हैं भी पुराने ज़माने की। उन्हें केवल डरना आता है। परेशान तो मैं उस समय भी हो गई थी जब पापा ने मुझे अपने कमरे में बुलाया। उन्होंने कमरे में बुला कर मुझे बहुत प्यार किया और फिर एक पचास पाउण्ड का चैक मुझे थमा दिया, 'डार्लिंग, हैप्पी बर्थडे !' मैं पहले हैरान हुई और फिर परेशान। मेरे जन्मदिन को तो अभी तीन महीने बाकी थे। पापा ने पहले तो कभी भी मुझे जन्मदिन से इतने पहले मेरा तोहफ़ा नहीं दिया। फिर इस वर्ष क्यों।

'पापा, इतनी भी क्या जल्दी है? अभी तो मेरे जन्मदिन में तीन महीने बाकी हैं।'

'देखो बेटी, मुझे नहीं पता मैं तब तक जिऊंगा भी या नहीं। लेकिन इतना तो तू जानती है कि पापा को तेरा जन्मदिन भूलता कभी नहीं।'

मैं पापा को उस गंभीर माहौल में से बाहर लाना चाह रही थी। 'रहने दो पापा, आप तो मेरे जन्मदिन के तीन तीन महीने बाद भी मांगने पर ही मेरा गिफ्ट देते हैं।' और कहते कहते मेरे नेत्र भी गीले हो गये।

मैं पापा को वहीं खड़ा छोड़ अपने घर वापिस आ गई थी। उस रात मैं बहुत रोई थी। केनेथ, मेरा पति बहुत समझदार है। वो मुझे रात भर समझाता रहा। कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला।

पापा के जीवन को कैसे मैनेज करूं, समझ नहीं आ रहा था। ध्यान हर वक्त फ़ोन की ओर ही लगा रहता था। डर, कि कहीं ममी का फ़ोन न आ जाए और वह रोती हुई कहें कि पापा ने आत्महत्या कर ली है।


फ़ोन आया लेकिन फ़ोन ममी का नहीं था। फ़ोन पड़ोसन का था - मिसेज़ जोन्स। हमारी बंद गली के आख़री मकान में रहती थी, ' जेनी, दि वर्स्ट हैज़ हैपण्ड।.. युअर पापा... ' और मैं आगे सुन नहीं पा रही थी। बहुत से चित्र बहुत तेज़ी से मेरी आंखों के सामने से गुज़रने लगे। पापा ने ज़हर खाई होगी, रस्सी से लटक गये होंगे या फिर रेल्वे स्टेशन पर.. .
मिसेज़ जोन्स ने फिर से पूछा, 'जेनी तुम लाइन पर हो न?'

'जी।' मैं बुदबुदा दी।

'पुलिस को भी तुम्हारे पापा ने ख़ुद ही फ़ोन कर दिया था। ...आई एम सॉरी माई चाइल्ड। तुम्हारी मां मेरी बहुत अच्छी सहेली थी।'

'...थी? ममी को क्या हुआ?' मैं अचकचा सी गई थी। 'आत्महत्या तो पापा ने की है न?'

' नहीं मेरी बच्ची, तुम्हारे पापा ने तुम्हारी ममी का ख़ून कर दिया है। 'और मैं सिर पकड़ कर बैठ गई। कुछ समझ नहीं आ रहा था। ऐसे समाचार की तो सपने में भी उम्मीद नहीं थी। पापा ने ये क्या कर डाला। अपने हाथों से अपने जीवनसाथी को मौत की नींद सुला दिया !

पापा ने ऐसे क्यों किया होगा? मैं कुछ भी सोच पाने में असमर्थ थी। केनेथ अपने काम पर गये हुए थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरी प्रतिक्रिया क्या हो। एकाएक पापा के प्रति मेरे दिल में नफ़रत और गुस्से का एक तूफ़ान सा उठा। फिर मुझे उबकाई का अहसास हुआ; पेट में मरोड़ सा उठा। मेरे साथ यह होता ही है। जब कभी कोई दहला देने वाला समाचार मिलता है, मेरे पेट में मरोड़ उठते ही हैं।

हिम्मत जुटाने की आवश्यक्ता महसूस हो रही थी। मैं अपने पापा को एक कातिल के रूप में कैसे देख पाऊंगी। एक विचित्र सा ख्याल दिल में आया, काश! अगर मेरी ममी को मरना ही था, उनकी हत्या होनी ही थी तो कम से कम हत्यारा तो कोई बाहर का होता। मैं और पापा मिल कर इस स्थिति से निपट तो पाते। अब पापा नाम के हत्यारे से मुझे अकेले ही निपटना था। मैं कहीं कमज़ोर न पड़ जाऊं.. .

ममी को अंतिम समय कैसे महसूस हो रहा होगा..! जब उन्होंने पापा को एक कातिल के रूप में देखा होगा, तो ममी कितनी मौतें एक साथ मरी होंगी..! क्या ममी छटपटाई होगी..! क्या ममी ने पापा पर भी कोई वार किया होगा..! सारी उम्र पापा को गॉड मानने वाली ममी ने अंतिम समय में क्या सोचा होगा..! ममी.. प्रामिस मी, यू डिड नॉट डाई लाईक ए कावर्ड, मॉम आई एम श्योर यू मस्ट हैव रेज़िस्टिड..!


मैने हिम्मत की और घर को ताला लगाया। बाहर आकर कार स्टार्ट की और चल दी उस घर की ओर जिसे अपना कहते हुए आज बहुत कठिनाई महसूस हो रही थी। ममी दुनियां ही छोड़ गईं और पापा - जैसे अजनबी से लग रहे थे। रास्ते भर दिमाग़ में विचार खलबली मचाते रहे। मेरे बचपन के पापा जो मुझे गोदी में खिलाया करते थे..! मुझे स्कूल छोड़ कर आने वाले पापा .. ..! मेरी ममी को प्यार करने वाले पापा.. ..! घर में कोई बीमार पड़ जाए तो बेचैन होने वाले पापा ..! ट्रेन ड्राइवर पापा ..! ममी और मुझ पर जान छिड़कने वाले पापा ..! कितने रूप हैं पापा के, और आज एक नया रूप - ममी के हत्यारे पापा ..! कैसे सामना कर पाऊंगी उनका.. ..! उनकी आंखों में किस तरह के भाव होंगे..! सोच कहीं थम नहीं रही थी।

मेरी कार घर के सामने रुकी। वहां पुलिस की गाड़ियां पहले से ही मौजूद थीं। पुलिस ने घर के सामने एक बैरिकेड सा खड़ा कर दिया था। आसपास के कुछ लोग दिखाई दे रहे थे - अधिकतर बूढ़े लोग जो उस समय घर पर थे। सब की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे। कार पार्क कर के मैं घर के भीतर घुसी। पुलिस अपनी तहकीकात कर रही थी। ममी का शव एक पीले रंग के प्लास्टिक में रैप किया हुआ था। ... मैनें ममी को देखना चाहा..मैं ममी के चेहरे के अंतिम भावों को पढ़ लेना चाहती थी।.. देखना चाहती थी कि क्या ममी ने अपने जीवन को बचाने के लिये संघर्ष किया या नहीं। अब पहले ममी की लाश - कितना कठिन है ममी को लाश कह पाना - का पोस्टमार्टम होगा। उसके बाद ही मैं उनका चेहरा देख पाऊंगी।

एक कोने में पापा बैठे थे। पथराई सी आंखें लिये, शून्य में ताकते पापा। मैं जानती थी कि पापा ने ही ममी का ख़ून किया है। फिर भी पापा ख़ूनी क्यों नहीं लग रहे थे ? .. पुलिस कांस्टेबल हार्डिंग ने बताया कि पापा ने स्वयं ही उन्हें फ़ोन करके बताया कि उन्होंने अपनी पत्नी की हत्या कर दी है।

पापा ने मेरी तरफ़ देखा किन्तु कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। उनका चेहरा पूरी तरह से निर्विकार था। पुलिस जानना चाह्यती थी कि पापा ने ममी की हत्या क्यों की। मेरे लिये तो जैसे यह जीने और मरने का प्रश्न था। पापा ने केवल ममी की हत्या भर नहीं की थी – उन्होंने हम सब के विश्वास की भी हत्या की थी। भला कोई अपने ही पति, और वो भी सैंतीस वर्ष पुराने पति, से यह उम्मीद कैसे कर सकती है कि उसका पति उसी नींद में ही हमेशा के लिये सुला देगा।

पापा पर मुकद्दमा चला। अदालत ने पापा के केस में बहुत जल्दी ही निर्णय भी सुना दिया था। जज ने कहा, "मैं मिस्टर ग्रीयर की हालत समझ सकता हूं। उन्होंने किसी वैर या द्वेश के कारण अपनी पत्नी की हत्या नहीं की है। दरअसल उनके इस व्यवहार का कारण अपनी पत्नी के प्रति अतिरिक्त प्रेम की भावना है। किन्तु हत्या तो हत्या है। हत्या हुई है और हत्यारा हमारे सामने है जो कि अपना जुर्म कबूल भी कर रहा है। मिस्टर ग्रीयर की उम्र का ध्यान रखते हुए उनके लिये यही सज़ा काफ़ी है कि वे अपनी बाकी ज़िन्दगी किसी ओल्ड पीपल्स होम में बिताएं। उन्हें वहां से बाहर जाने कि इजाज़त नहीं दी जायेगी। लेकिन उनकी पुत्री या परिवार का कोई भी सदस्य जेल के नियमों के अनुसार उनसे मुलाक़ात कर सकता है। दो साल के बाद, हर तीन महीने में एक बार मिस्टर ग्रीयर अपने घर जा कर अपने परिवार के सदस्यों से मुलाक़ात कर सकते हैं।"


मैं चिढ़चिढ़ी होती जा रही थी। कैनेथ भी परेशान थे। बहुत समझाते, बहलाते। किन्तु मैं जिस यन्त्रणा से गुज़र रही थी वो किसी और को कैसे समझा पाती। किसी से बात करने को दिल भी नहीं करता था। कैनेथ ने बताया कि वोह दो बार पापा को जा कर मिल भी आया है। समझ नहीं आ रहा था कि उसका धन्यवाद करूं या उससे लड़ाई करूं।

कैनेथ ने मुझे समझाया कि मेरा एक ही इलाज है। मुझे जा कर अपने पापा से मिल आना चाहिये। यदि जी चाहे तो उनसे ख़ूब लड़ाई करूं। कोशिश करूं कि उन्हें माफ़ कर सकूं। क्या मेरे लिये पापा को माफ़ कर पाना इतना ही आसान है? तनाव है कि बढ़ता ही जा रहा है। सिर दर्द से फटता रहता है। पापा का चेहरा बार बार सामने आता है। फिर अचानक मां की लाश मुझे झिंझोड़ने लगती है।

मेरी बेटी का जन्मदिन आ पहुंचा है, "ममी मेरा प्रेज़ेन्ट कहां है?" मैं अचानक अपने बचपन में वापिस पहुंच गई हूं। पापा एकदम सामने आकर खड़े हो गये हैं। मेरी बेटी को उसका जन्मदिन का तोहफ़ा देने लगे हैं ।

अगले ही दिन मैं पहुंच गई अपने पापा को मिलने। इतनी हिम्मत कहां से जुटाऊं कि उनकी आंखों में देख सकूं। कैसे बात करूं उनसे। क्या मैं उनको कभी भी माफ़ कर पाऊंगी? दूर से ही पापा को देख रही थी। पापा ने आज भी लंच नहीं खाया था। भोजन बस मेज़ पर पड़ा उनकी प्रतीक्षा करता रहा, और वे शून्य में ताकते रहे। अचानक ममी कहीं से आ कर वहां खड़ी हो गयीं। लगी पापा को भोजन खिलाने। पापा शून्य में ताके जा रहे थे। कहीं दूर खड़ी मां से बातें कर रहे थे।

मैं वापिस चल दी, बिना पापा से बात किये। हां, पापा के लिये यही सज़ा ठीक है कि वे सारी उम्र मां को ऐसे ही ख़्यालों में महसूस करें, उसके बिना अपना बाकी जीवन जियें, उनकी अनुपस्थिति पापा को ऐसे ही चुभती रहे।

जाओ पापा मैंने तुम्हें अपनी ममी का ख़ून माफ़ किया।

--तेजेन्द्र शर्मा

सिगरेट (Cigrate) kahani

सिगरेट


बूढ़ा ज़्यादा देर एक जगह बैठने का आदी नहीं था। थोड़ी देर टहलने के बाद वह पत्थर की बेंच पर बैठा लेकिन जल्दी ही उठ गया। लोग टहलते हुए आ-जा रहे थे। बूढ़ा भी टहलने लगा।
टहलते-टहलते उसका हाथ जेब में चला गया और माचिस की डिब्बी उंगलियों में फंसी बाहर आ गयी। वह डिब्बी को ध्यान से देखने लगा, जैसे पहली बार देख रहा हो। कितना पुराना साथ था इस माचिस का और उसका। दोनों बचपन के साथी थे। यह पार्क उनका तीसरा साथी था।
लेकिन वे सिर्फ तीन ही नहीं थे। कुल मिलाकर पाँच थे। वह बूढ़ा, यह माचिस,यह पार्क, बूढ़े का दोस्त और सिगरेट की पैकेट। दोस्त की याद आते ही बूढ़े का मन भारी सा होने लगा। उसने दूसरी जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगा ली।

उसे याद आया, जब वह दसवीं में था तो उसने इसी पार्क से सिगरेट पीनी शुरू की थी। दोस्त ने सिखाया था। वह और दोस्त अपने घर से सुबह टहलने के लिए निकलते। पार्क में आकर थोड़ी देर खूबसूरत लड़कियों को देखते, फिर किसी सुरक्षित कोने में एक पौधे और झाड़ी की आड़ लेकर सिगरेट की पैकेट निकालते।
’’अरे, माचिस तो मैं घर पर ही भूल आया।’’ कभी - कभी ऐसा भी होता।
’’मैं लाया हूं माचिस।’’ वह मुस्कुरा कर कहता।
फिर दोस्त एक सिगरेट निकलता। उसे परिपक्व सिगरेटबाज़ की तरह पैकेट पर धीरे- धीरे ठोंकता, फिर आहिस्ते से अपने होंठों में दबाता और दीवार की टेक लगा लेता। वह माचिस जलाता और दोनों हथेलियों से तीली की लौ को बुझने से बचाते हुए दोस्त की सिगरेट को माचिस दिखाता। दोस्त सिगरेट के कश खींचता और धुंए के छल्ले बनाने की कोशिश करता। दोस्त ने बहुत कोशिश की, लेकिन उसकी तरह छल्ले बनाना कभी नहीं सीख पाया।
दोस्त दो महीने पहले अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत से जूझ रहा था। वह चौबीसों घण्टे दोस्त के साथ रहता था, सबके मना करने के बावजूद।
जिस दिन दोस्त मरा, उस दिन सुबह से ही वह बहुत मुखर दिख रहा था। उसका बेटा अस्पताल के स्नानागार मे मंजन और स्नान वगैरह कर रहा था और बहू खाना लाने के लिए घर गयी थी। दोस्त की हालत वाकई सीरियस थी। डॉक्टरों ने डेडलाइन दे दी थी....... बस कुछ घण्टे या कुछ दिन। वह उसका हाथ पकड़ कर उसका माथा सहला रहा था कि दोस्त ने आँखें खोलीं।
’’ लगता है विदाई का समय आ गया।’’ दोस्त एक मुर्दा हँसी हँसा।
’’ नहीं, डॉक्टर ने कहा है कि एक और टेस्ट के बाद ही कुछ........।’’ उसने झूठ बोलने की कोशिश की और पकडा गया।
’’यार तू तो कम से कम सही बोल।’’
’’यार तू तो.....।’’ उसकी आँखें भर आयीं।
’’मुझे जाने का ग़म नहीं है यार। अधिकतर ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर चुका हूँ। बस दो ग़म हैं। एक तो यह कि तेरी तरह छल्ले बनाना नहीं सीख पाया और दूसरा यह कि........।’’ दोस्त रुक गया।
’’दूसरा क्या..........?’’ उसने ज़ोर दिया।
’’दूसरा यह साले कि तुझसे पहले नहीं मरना था। तुझे मार कर मरना था कमीने।’’ दोस्त हंस रहा था।
वह भी निराशा के बादलों से थोड़ा बाहर निकल आया।
’’ अबे जा साले, चार दिन का मेहमान है तू। मैं अभी कई साल जीने वाला हूं।’’ उसने दोस्त के हाथों को सहलाते, हंसते हुये कहा।
’’ देख लेना बुड्ढे, मरने के तीन महीने के अंदर तुझे भी न बुला लिया तो कहना।’’ दोनों हँसे और खूब हँसे। सारी बोझिलता हँसी की आँच में कपूर की तरह उड़ गयी।
दोनों बूढ़ों की बातें एक नर्स ने सुन ली। इतनी वीभत्स बातें, वह भी एक मृतप्राय मरीज़ से? वह बूढ़े को अजीब सी नज़रों से देखने लगी।
जब वह बाहर चली गयी तो दोस्त ने अपने दोनों पोतों को पास बुला कर पैसे देते हुये कहा,
’’ जाओ बेटे, बाहर से जलेबी खा आओ।’’
’’दादाजी, मैं जलेबी नहीं खाऊंगा, कॉमिक्स खरीदूँगा।’’ बड़ा पोता मचला।
’’ ठीक है, ये ले और पैसे , जा।’’
दोनों उछलते कूदते बाहर चले गये।
’’यार एक चीज़ माँगूँ, देगा ?’’
’’ जान माँग ले।’’ बूढ़े ने कहा।
’’ एक जला ना।’’ दोस्त ने विनती की।
’’ साले, पागल हो गया है? इस हालत में सिगरेट तुझे बहुत नुकसान करेगी।’’ उसने झिड़कते हुये मना किया।
’’ अब क्या फ़ायदा क्या नुकसान........। बस एक आख़िरी बार पी लूँ तेरे साथ........... फिर पता नहीं..........।’’
बूढ़े ने दोस्त का मुँह हथेली से बंद करके आगे के शब्दों को रोक दिया। दौड़ कर उस प्राइवेट वार्ड का दरवाज़ा बंद किया और आकर दोस्त के पास बैठ गया। दोस्त उठने लायक नहीं था, लेकिन ख़ुद से उठकर पलंग के सिरहाने की टेक लेकर बैठा था। बूढ़े ने पैकेट निकाली तो दोस्त ने पैकेट झपट ली और उसमें से एक सिगरेट निकाल ली। फिर धीरे-धीरे पैकेट पर ठोंका और होंठों के बीच दबा लिया। बूढ़े ने भारी मन से माचिस जलायी और हथेलियों के बीच से सिगरेट को लौ दिखायी।
दोस्त धीरे-धीरे कश लेने लगा। बूढ़ा भी दोस्त के शांत चेहरे को देख कर संतुष्ट था। दोनों ने हमेशा की तरह एक ही सिगरेट से बारी-बारी कश लिया।
’’हम कितना कुछ करना चाहते हैं पर नहीं कर पाते। सोचा था रिटायरमेंट के बाद कुछ अपनी मर्ज़ी का करेंगे। हम दोनों ने सारी ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर दीं, फिर भी जीवन के अंतिम दिनों में हिल स्टेशन जाकर बसने और भाग-दौड़ से दूर ज़िंदगी बिताने का सपना तो सपना ही रह गया। कमबख्त ज़िंदगी ने वक़्त ही नहीं दिया। अपने पीछे भगाती रही, भागती रही.........।’’ दोस्त कश लगाते हुये खो सा गया था।
’’ कोई बात नहीं यार, हमारी ज़िंदगी अब हमारे बादवाली पीढ़ीयां ली रही हैं। हमारी निश्चिंतताएँ, हमारे सपने अब उनकी आंखों में हैं।’’ बूढ़े ने दोस्त की हथेली दबाते हुये कहा।
’’ कहां.......? अब तो सब कुछ बदल गया है दोस्त। हवा बदल गयी है। अपने तरीके से, अपनी शर्तों पर कोई ज़िंदगी नहीं जी पाता। ज़िम्मेदारियां सारी निभा दीं पर अपने ख़ुद के लिये सोचा कुछ नहीं कर पाया।’’
’’ हमने कोशिश तो की यार अपने तरीके से ज़िंदगी जीने की, ये क्या कम बात है ?’’ बूढ़ा बोला।
’’ज़िंदगी जीना तो छोड़, मैं तो तेरी तरह छल्ले बनाना भी नहीं सीख पाया।’’ दोस्त ने होंठ गोल करके धुआँ छोड़ा।
’’ चल कोई बात नहीं, मैं तेरे पीछे-पीछे आ रहा हूँ। वहीं सिखा दूँगा।’’ उसने कहा।
दोस्त के साथ यह उसकी आख़िरी सिगरेट थी। उस दिन जब दोस्त ने आँखें मूंदी तो हर मित्र और रिश्तेदार की ज़बान पर एक ही वाक्य था, ’’ आख़िर हर ज़िम्मेदारी निभा गये।’’
’’ हाँ, सबको पार लगा दिया।’’
’’ जो-जो करना चाहते थे कर के ही रहे।’’
’’ नहीं, छल्ले बनाना नहीं सीख पाया। बहुत चाहकर भी नहीं.........।’’ बूढ़ा बुदबुदाया। लेकिन किसी ने सुना नहीं, ख़ुद बूढ़े के अलावा।
उस दिन से रोज़ सुबह पार्क में टहलने जानेवाला दशकों पुराना क्रम टूट गया। दो महीनों में आज वह पहली बार आया था। बूढ़े के दोनों बेटे मॉण्ट्रियल में, बेटी मुंबई में और बीवी आसमान में थी। कभी-कभी बेटों की ई-मेल, बेटी का फोन और बीवी की याद आकर उसे उदास करने की कोशिश करते लेकिन वह तटस्थ रहने की पूरी कोशिश करता। जीवन का खेल इस अवस्था में काफी कुछ समझ में आ ही जाता है। सब आना-जाना है। बेटे-बेटी ख़ुश रहें, अपनी ज़िंदगी जियें, ज़्यादा लगाव घातक है। कोई कितना भी प्रिय हो, कभी भी छोड़ कर जा सकता है। यही जीवन है।
जब पत्नी की मौत हुयी थी तो बूढ़ दोस्त के पास बैठ कर बहुत रोया था, लेकिन जब दोस्त की मौत हुयी तो बिल्कुल नहीं रोया। उसे लगता जैसे दोस्त फ़िल्म देखने हॉल में गया है। दोस्त हमेशा की तरह पहले पहुंच गया है, वह थोड़ा बाद में पहुंचेगा। इसमें रोना और दुख क्या करना। हां, याद आने पर कभी-कभी दिनचर्या सुस्त हो जाती है।
वह फिर पीछे की तरफ लौट पड़ा-सत्रह साल वाली उम्र में। जहां से उसने जीवन जीना शुरू किया था।
’’ इतनी देर कहां लगा दी। फ़िल्म शुरू हुये दस मिनट हो चुके हैं।’’ दोस्त थोड़ी सी भी देरी पर बहुत नाराज़ होता था।
’’ यार आज पापा ऑफ़िस ही नहीं गये, इसलिये कई बहाने मारने पड़े।’’ वह बताता।
पूरी फ़िल्म के दौरान जब वे दो पैकेट सिगरेट पी जाते तो दोस्त थोड़ा चिंतित दिखायी देता।
’’आजकल सिगरेट बहुत ज़्यादा हो जा रही है। कम करनी होगी।’’
’’ हाँ, मैं भी सोच रहा हूँ।’’ वह भी दोस्त का समर्थन करता।
फिर किसी दिन दोस्त फैसला सुनाता, ’’ मैं एक तारीख से सिगरेट छोड़ रहा हूँ, हमेशा के लिये।’’
’’एक से ही क्यों ?’’ एक बार उसने पूछा था।
’’ताकि सीधा-सीधा हिसाब याद रहे कि सिगरेट छोड़े कितने दिन हुये।’’
’’जब हमेशा के लिये छोड़ रहा है तो जानने की क्या ज़रूरत.........?’’
फिर दोस्त तीस या इकतीस तारीख को रोज़ से दुगुनी सिगरेटें पीता और उसे भी पिलाता। इस वजह के साथ कि कल से सिगरेट एकदम से छोड़ देनी है। सिगरेट पीना सिखाने में दोस्त उसका गुरू था लेकिन दोस्त छल्ले नहीं बना पता था और इस मामले में वह दोस्त का गुरू था।
दोनों महीने के अंतिम दिन ख़ूब सिगरेटें पीते और नये महीने की शुरूआत बिना सिगरेट के करते। फिर दोनों तीन से चार और चार से पांच तारीख़ तक अपना वादा निभाते। छह-सात तारीख आते ही दोनों एक दूसरे का मुंह देखने लगते कि कोई कुछ कहे। कोई बोलता- कभी वह, कभी दोस्त।
’’कल रात से ही सिर बड़ा दर्द हो रहा है।’’
’’हां, मुझे भी हल्का सिरदर्द है। कुछ दिनों से पेट भी साफ नहीं हो रहा है।’’
’’शायद हमने अचानक छोड़ दी इसीलिये............।’’
’’ चलो धीरे-धीरे कम करते हुये छोड़ते हैं।’’
फिर दोनों धीरे-धीरे कम करने का प्रयास करते। कुछ दिनों तक कम होने का यह क्रम चलता, फिर वही पुराना ढर्रा। मगर अगली तीस या इकतीस को कोई न कोई एक नया प्रण ज़रूर करता।
’’इस महीने से एक दिन में बस दो सिगरेट।’’
’’डन।’’
’’डन।’’
यह ’डन’ तब तक निभता जब तक वे कोई फ़िल्म देखने नहीं जाते। जिस दिन हॉल में घुसते, पैकैटें ख़त्म हो जातीं।
बूढ़े ने अपनी मर्ज़ी से भी सिगरेट छोड़ी, ह्दय को स्वस्थ रखने के लिये। जब सीने में दर्द होता और डॉक्टर सिगरेट पीने को मना करता। बूढ़ा एक हफ़्ते तक सिगरेट नहीं पीता, फिर जैसे ही दर्द होता, पैकेट हाथ में आ जाती। इस बार, पिछले हफ़्ते बूढ़े को डॉक्टर ने चेताया था कि सिगरेट छोड़ दीजीये वरना ज़्यादा दिन नहीं जी पाएंगे। बूढ़ा आंखों में मुस्कराया था। एक दिन के लिये भी नहीं छोड़ी इस बार।
सब कुछ कितनी जल्दी होता चला गया। आज सोचने पर बूढ़े को विश्वास नहीं होता कि सिगरेट शुरू किये पचास-पचपन साल हो गये। कब स्कूल, कॉलेज, नौकरी, शादी, बीवी, बच्चे, रिटायरमेण्ट एक के बाद एक परिवर्तन आते गये। नये-नये अनुभव मिलते गये। दोस्त हर अनुभव में साथ रहा। सिगरेट भी हर अनुभव में साथ रही। दोस्त अकेला छोड़ गया............एक उदास अनुभव के साथ, एक सिहरन के साथ। सिगरेट ने अकेला नहीं छोड़ा। अब भी साथ है। शायद यह शरीर के साथ ही साथ छोड़ती हो।
उसने सिगरेट का एक लम्बा कश लिया और आधी बची सिगरेट झाड़ियों में फेंक दी। अकेले उसे सिगरेट पीने की आदत नहीं। एक सिगरेट एक बार में पूरी नहीं पी पाता, भले ही तुरंत अगली जला लेता है। दो महीने से प्रयास कर रहा है कि अकेला पीना सीख ले पर पचास साल पुरानी आदत दो महीने में कैसे बदले। आधी पीने के बाद आधी, जो कि दोस्त का हिस्सा है, नहीं पी जाती, फेंक देनी पड़ती है।
पार्क में टहलते लोग बूढ़े को अजीब नज़रों से देखते हैं। सुबह की ताज़ी हवा लेने के बजाय यह बूढ़ा सिगरेट पी रहा है, वह भी श्रृंखलाबद्ध...........लगातार। बूढ़ा यादों में खोया चलता रहता है।
कभी-कभी उसे लगता है कि वह बूढ़ा नहीं है-सत्रह साल का लड़का है। दसवीं का छात्र। दोस्त के साथ पार्क में घूमता हुआ। बतियाता हुआ।
’’शादी के बाद अगर तेरी बीवी ने मना किया तो तू सिगरेट छोड़ देगा?’’ उसने कश मारते हुये दोस्त से पूछा था।
’’यार पद्मा से मेरी शादी हो जाय बस्स्स्स............वह कहेगी सारी दुनिया छोड़ दूंगा।’’
’’ऐसा क्या है उसमें...............?’’
’’मेरी नज़र से देख, क्या होंठ हैं, गुलाब की पंखड़ियां, आंखें जैसे नीले मोती और फ़िगर..............परी है परी। आइ लव हर।’’ दोस्त खोने लगा था।
’’और पद्मा से तेरी शादी न हो पायी तो........?’’
’’तो ज़िंदगी में कभी शादी नहीं करूँगा और न ही पद्मा को करने दूँगा। आख़िर हमने साथ जीने मरने की कसमें खायी हैं।’’ दोस्त अटल इरादे से बोला था।

लेकिन दोस्त की शादी पद्मा से नहीं हुयी और दसवीं कक्षा का पवित्र प्रेम परवान नहीं चढ़ पाया। दोस्त पद्मा की शादी रोक भी नहीं पाया बल्कि अपने पिताजी के साथ जाकर शादी की दावत भी खा आया। उस रात दोस्त बहुत रोया था। उस रात उसने सिगरेट की अग्नि हाथ में लेकर कभी शादी न करने की कसम खायी थी। लेकिन बाद में दोस्त की शादी भी हुयी और प्यारे-प्यारे बच्चे भी हुये।

एक बार बूढ़ा, दोस्त के साथ अपनी बेटी से मिलकर आ रहा था, जो हॉस्टल में रह कर पढ़ती थी, कि दोस्त की परी स्टेशन पर मिल गयी। शादी के पंद्रह साल ही बीते थे और दोस्त की पद्मा बिल्कुल पहचान में नहीं आ रही थी। गुलाब की पंखड़ियों के उपर हल्के बाल उगे दिख रहे थे और नीले मोती, मोटे फ़्रेम के चश्मे में क़ैद हो गये थे। एक ज़माने में दोस्त को पागल कर देने वाला ’फ़िगर’ ऊपर से नीचे तक बराबर हो चुका था। उसका पति उससे भी बीस था।
पद्मा से मुलाक़ात के बाद दोस्त ख़ूब हँसा था। सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुये उसने कहा था, ’’यार, वक़्त भी कैसा मसखरा है। हर चीज़ से ज़ाहिर करता है कि मुझसे शक्तिशाली कोई नहीं।’’
यादों में खोये-खोये बूढ़े ने सिगरेट जला ली थी और पार्क के गेट तक पहुंचने ही वाला था। उसके बांये हाथ में आज का अख़बार था और दाहिने हाथ में सिगरेट झूल रही थी। गेट के पास पहुंचते ही उसका मन हुआ कि वह उन झाड़ियों के पीछे झांके, जिसके पीछे उसने अपने दोस्त के साथ छल्ले बनाने की शुरूआत की थी।
झाड़ियां अब काफ़ी घनी हो गयी थीं। उस समय का पौधा अब मोटे तने वाला पेड़ बन चुका था। बूढ़े ने चलते-चलते ही अख़बारवाले हाथ से पेड़ पर लटकी लताओं को हटाया और अंदर झांका।
अंदर कुछ सुरसुराहट थी। सोलह-सत्रह साल के दो लड़के उन झाड़ियों और लताओं के पीछे बैठे सिगरेट पी रहे थे। एक गुरू की तरह आसमान की तरफ़ मुंह करके छल्ले बना रहा था और दूसरा चेले की तरह ध्यान से देखकर उसका अनुसरण कर रहा था। बूढ़े को देखकर वे घबरा गये। बूढ़ा मुस्करा उठा। उसे अचानक अपने भीतर ढेर सारा उल्लास अनुभव हुआ। आधी सिगरेट ख़त्म हो गयी थी। उसने सिगरेट को मुस्कराते हुये ज़मीन पर गिराया, पैरों से मसला और गेट की तरफ़ बढ़ गया।

--विमल चंद्र पाण्डेय

लघुकथा- ईमानदार Laghukatha: Imandaar

रोज शाम बगीचे में घूमने जाना मेरी आदत में शामिल था | फाटक के पास ही शर्माजी मिल गए |
वहां रुक कर कुछ देर उनसे बतियाने लगा | सावन का पहला सोमवार था | आज कुछ विशेष रौनक थी | कुछ एक गुब्बारे-कुल्फी वाले भी आ जुटे थे |
शर्माजी से जैरामजी कर आगे बढ़ने लगा तो पास में खड़े कुल्फी वाले ने कुरते की बाह पकड़ कर कहा : "बाबूजी पैसे" ?
मैं हतप्रभ: "कैसे पैसे" ?
उसने पास खड़े कुल्फी खाते एक बच्चे की तरफ़ इशारा कर के कहा : "आपका नाम ले कुल्फी ले गया है, पैसे तो आपको देने ही पड़ेंगे" |
मुझे गुस्सा आ गया बच्चे के पास गया और दो थप्पड़ जड़ दिए और कहा "मुफ्त की कुल्फी खाते शर्म नही आती" ?
वह बोला : "मुफ्त की कहाँ ? इसके बदले थप्पड़ खाने के लिए तो आपके पास खड़ा था वरना भाग ना जाता"?


--विनय के जोशी

लघुकथा : एक छोटी सी प्रेम कहानी (Ek Choti si Prem Kahani) Laghukatha

लड़के ने धीमी होती रेल की खिड़की के बाहर देखा तो लगा साक्षात चाँद धरा पर उतर आया हो| अलसी भौर में उनींदे नयन सीप | अपलक देखता ही रह गया | कुछ संयत हो, हाथ में पानी की केतली ले उतरा और वहां चला, जहाँ वह मानक सौंदर्य मूर्ति जल भर रही थी | फासला कम होता गया, सम्मोहन बढ़ता गया | समक्ष पहुँचने तक दोनों के मध्य स्मित अवलंबित नजर सेतु स्थापित हो चुका था | भावनाओं का परिवहन होने लगा | लड़के ने देखा लड़की की पगतली पर महावर रची थी | किसी परिणय यात्रा की सदस्या थी | बालों से चमेली की खुशबू का ज्वार सा उठा, लड़का मदहोश हो गया | कलाई थाम ली, हथेली पर रचे मेहंदी के बूटों पर अधर रख दिये | लड़की की पलकें गिर गई | तभी लड़की के पास खड़ा पानी भरता एक मुच्छड़ मुड़ा | अग्नि उद्वेलित नजरों से घूरा और अपने हाथ को लडके की कनपट्टी की दिशा में घुमा दिया | लड़का झुका और स्वयं को बचाया | इतने में उसकी ट्रेन खिसकने लगी | वह लपक कर चढ़ गया | दूसरी तरफ़ उनकी की ट्रेन भी चल पड़ी | वह मुच्छड़ के साथ घसीटती सी चली | गति पकड़ती ट्रेन की खिड़की से एक मेहंदी रची हथेली हिल रही थी | लड़का आंख में पड़ा कोयला मसलने लगा |
.
--विनय के जोशी

लघुकथा : लक्ष्य ( Lakshya ) Laghukatha

पौ फटते ही उसने लिखना शुरू कर दिया था। एक झोंपड़े की दीवार पर लिखते ही साइकिल उठा, अगली दीवार ढूँढ़ने लगता। एक दीवार पर लिखने के उसे दो रुपये मिलते थे। ठेकेदार ने कहा था, शाम होने से पहले पचास दीवारें लिखी होनी चाहिये। उसे लक्ष्य प्राप्त होने का विश्वास था, लेकिन चार बजते-बजते वह थक कर चूर हो गया। पूरा बदन दर्द कर रहा था। कलाई का दर्द तो सहा ही नहीं जा रहा था। उसे लगा अब वह और नहीं लिख पायेगा। गेरु से भरी बाल्टी और ब्रश एक तरफ रख दीवार के सहारे, माथा पकड़ कर बैठ गया। अभी बैठा ही था, कि ठेकेदार की मोटर साईकिल आ कर रुकी।
- ’अरे उठ ! अभी तो बहुत सा लिखना है, कल सुबह जब स्वास्थ मंत्री इधर से गुजरें तो सड़क से दीखती हर दीवार पर लिखा होना चाहिये। ’
- ’मालिक बदन का पोर-पोर दुख रहा है। सुबह से कुछ नहीं खाया। अंगुलियां से ब्रश नहीं पकड़ा जा रहा।’ फटे बनियान में वह ठंड से कांपता हुआ बोला।
ठेकेदार को दया आ गई उसने मोटर साइकिल की डिक्की में हाथ डाला, एक बोतल निकाली और बोला ’ले दो घूँट लगा ले सब ठीक हो जायेगा।’ उसकी आँखों में चमक आ गई। अब वह लक्ष्य प्राप्त कर लेगा । दो की बजाय बड़े-बड़े पाँच घूंट हलक में उतार लिये और नये उत्साह से नशामुक्ति के नारे लिखने लगा।
..............दारू दानव से करो किनारा। आगे बढ़ता देश हमारा।

--विनय के जोशी

लघुकथाः मूक- विरोध (Mook Virodh) Laghukatha

सुनील के यहाँ दो लड़कियों पर लड़का हुआ था। सो हम पति-पत्नी उसे बधाई देने पहुँचे थे। कॉल बेल बजाने ही वाला था कि अन्दर से जोर-जोर से लड़ाई की आवाज सुनकर ठहर गया।
''पापा आप खुश होते रहे अपने लाडले के जन्म पर। हमें आप के इस कार्य से बहुत ठेस पहुँची है।"
आवाज़ उनकी बड़ी बेटी इला की थी ।
''बेटी क्या कह रही हो तुम- क्या तुम्हें अपने भाई के जन्म पर खुशी नहीं है।"
''आप मेल शाऊन्जिम (पुरूषतावादी) की बात कर रहे हैं मैं बारहवीं में तथा इड़ा नवीं में है
आप की उम्र अड़तालीस व मम्मी की चव्वालीस वर्ष है क्या आपके दो बेटियों की जगह दो बेटे होते तब भी आप एक बेटी पैदा करते, भ्रूण जाँच करवाते?" इला झपटते हुए कह रही थी।
''बेटे वंश चलाने के लिए' सुनील की पत्नी की मरी सी आवाज निकली।
''बस चुप करिये मम्मी। और हाँ, आप दोनो सुन लीजिए अगर आपने बेटा होने का जश्र मनाया तो मैं और इड़ा मुँह पर पट्टी बाँधकर मूक विरोध करेंगे। समझे?"
यह सुन कर हम पति-पत्नि ने बिना बधाई के वापिस लौटने में गनीमत समझी ।

--श्याम सखा 'श्याम'