अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
वृक्ष हों भले खड़े,
हो घने, हो बड़े,
एक पत्र-छॉंह भी मॉंग मत, मॉंग मत, मॉंग मत!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी!
कर शपथ! कर शपथ! कर शपथ!
ये महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत् रक्त से,
लथ पथ, लथ पथ, लथ पथ !
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
--हरिवंशराय बच्चन
लेबल: हरिवंशराय बच्चन
बदनीयतों की चाल, परिन्दे को क्या पता
फैला कहाँ है जाल, परिन्दे को क्या पता
लोगों के, कुछ लज़ीज़, निवालों के वास्ते
उसकी खिंचेगी खाल, परिन्दे को क्या पता
इक रोज़ फिर उड़ेगा कि मर जाएगा घुटकर
इतना कठिन सवाल, परिन्दे को क्या पता
पिंजरा तो तोड़ डाला था, पर था नसीब में
उससे भी बुरा हाल, परिन्दे को क्या पता
देखा है जब से एक कटा पेड़ कहीं पर
है क्यूं उसे मलाल, परिन्दे को क्या पता
उड़ कर हजारों मील इसी झील किनारे
क्यूं आता है हर साल, परिन्दे को क्या पता
एक-एक कर के सूखते ही जा रहे हैं क्यों
सब झील नदी ताल, परिन्दे को क्या पता
लेबल: अज्ञात
खिड़कियाँ, सिर्फ़, न कमरों के दरमियां रखना (Khidkiyan sirf na kamron ke darmiyan rakhna)
प्रस्तुतकर्ता Devesh Chaurasia पर 9:34 pmखिड़कियाँ, सिर्फ़, न कमरों के दरमियां रखना पुराने वक़्तों की मीठी कहानियों के लिए ज़ियादा ख़ुशियाँ भी मगरूर बना सकती हैं बहुत मिठाई में कीड़ों का डर भी रहता है अजीब शौक़ है जो क़त्ल से भी बदतर है बादलो, पानी ही प्यासों के लिए रखना तुम बोलो मीठा ही मगर, वक़्त ज़रूरत के लिए मशविरा है, ये, शहीदों का नौजवानों को ये सियासत की ज़रूरत है कुर्सियों के लिए
अपने ज़ेहनों में भी, थोड़ी सी खिड़कियाँ रखना
कुछ, बुजुर्गों की भी, घर पे निशानियाँ रखना
साथ ख़ुशियों के ज़रा सी उदासियाँ रखना.
फ़ासला थोड़ा सा रिश्तों के दरमियां रखना
तुम किताबों में दबाकर न तितलियाँ रखना
तुम न लोगों को डराने को बिजलियाँ रखना
अपने इस लहजे में थोड़ी सी तल्ख़ियाँ रखना
देश के वास्ते अपनी जवानियाँ रखना
हरेक शहर में कुछ गंदी बस्तियाँ रखना
--नीरज रोहिल्ला
लेबल: नीरज रोहिल्ला
जनाजा रोककर वो मेरे से इस अन्दाज़ मे बोले,
गली छोड्ने को कही थी हमने तुमने दुनियां छोड दी।
जो गिर गया उसे और क्यों गिराते हो,
जलाकर आशियाना उसी की राख उड़ाते हो ।
गुज़रे है आज इश्क के उस मुकाम से,
नफरत सी हो गयी है मोहब्बत के नाम से ।
जब जुबां खामोशी होती है नज़र से काम होता है,
ऐसे माहौल का ही शायद मोहब्बत नाम होता है।
वो फूल जिस पर ज्यादा निखार होते हैं,
किसी के दस्त हवस का शिकार होते हैं ।
पी लिया करते हैं जीने की तमन्ना में कभी,
डगमगाना भी जरुरी है सम्भलने के लिये ।
मै जिसके हाथ मे एक फूल दे कर आया था,
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश मे है ।
यूं तो मंसूर बने फिरते हैं कुछ लोग,
होश उड जाते हैं जब सिर का सवाल आता है ।
मुझे तो होश नही, तुमको खबर हो शायद ,
लोग कहते है कि तुम ने मुझ को बर्बाद कर दिया ।
देखिए गौर से रुक कर किसी चौराहे पर,
जिंदगी लोग लिए फिरते हैं लाशों के तरह ।
इस नगर मे लोग फिरते है मुखौटे पहन कर,
असल चेहरों को यहां पह्चानना मुमकिन नही ।
लेबल: शेर-ओ-शायरी
वक़्त का ये परिंदा रुका है कहाँ (Waqt ka Ye Parinda Ruka Hai Kahan)
प्रस्तुतकर्ता बेनामी पर 12:00 amवक़्त का ये परिंदा रुका है कहाँ
मैं था पागल जो इसको बुलाता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा |
लौटता था मैं जब पाठशाला से घर
अपने हाथों से खाना खिलती थी माँ
रात में अपनी ममता के आँचल तले
थपकीयाँ मुझे दे के सुलाती थी माँ ||
सोच के दिल में एक टीस उठती रही
रात भर दर्द मुझको जागता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा ||
सबकी आँखों में आँसू छलक आए थे
जब रवाना हुआ था शहर के लिए
कुछ ने माँगी दुआएँ की मैं खुश रहूं
कुछ ने मंदिर में जाके जलाए दिए ||
एक दिन मैं बनूंगा बड़ा आदमी
ये तसव्वुर उन्हें गुदगुदाता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा ||
माँ ये लिखती हर बार खत में मुझे
लौट आ मेरे बेटे तुझे है क़सम
तू गया जबसे परदेस बेचैन हूँ
नींद आती नहीं भूख लगती है कम ||
कितना चाहा ना रोऊँ मगर क्या करूँ
खत मेरी माँ का मुझको रुलाता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा ||
लेबल: जसवंत सिंह